मैंने मां बाप को मंदिर में बिठा रखा है
मैंने घर को ही नया स्वर्ग बना रखा है!
मैंने मां-बाप को मंदिर में बिठा रखा है!!
दाग़ चेहरे का छुपाए से नहीं छुप पाता!
इसलिए दिल को ही आईना बना रखा है!!
जिसको सब ढूढ़ते-फिरते हैं धरम नगरी में !
अपने गीतों से उसे मैंने छुपा रखा है!
मेरी नादानियों पे हँस के ना उड़ाओ मजाक!
मैंने भगवान को हमराज बना रखा है!!
दर्द दिल का मेरे गीतों में पिघल जाता है!
बस इसी फन ने मुझे अब भी जिला रखा है!!
रचना =
स्वतंत्र पाठक हरीद्वार उत्तराखंड
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