जीवन एक संयोग है निराधार कोई भी सबंध नहीं होता ! अभिषेक सैनी !
( गुजरा जमाना )
अचानक जब कभी गुजरा जमाना याद आता है
तो नजरों में कई बरसों का नक्शा घूम जाता है।
वे बचपन की शरारत से भरी ना समझी की बातें
नदी के तीर पै जॅस-गा बिताई चांदनी रातें
सड़क, स्कूल, साथी, बाग औ' मैदान खेलों के
वतन के वास्ते मर-मिटने का मंजर दिखाता है।।1।।
हरेक को अपनी पिछली जिंदगी से प्यार होता है
बदल जाता है सब लेकिन वही संसार होता है
दबी रह जाती है यादें झमेलों और मेलों की
नया सूरज निकल नई रोशनी नित बाँट जाता है !!
रचना = स्वतंत्र पाठक हरीद्वार उत्तराखंड
संपादक शिवाकांत पाठक !
हर संबंध का अपना कोई न कोई आधार होता है, बिना किसी संबंध के न कोई संयोग हो सकता है न वियोग। जो कुछ होता है वह किसी न किसी हिसाब को चुकाने के लिए ही होता है और हिसाब पूरा हो जाने पर राह अपने आप अलग-अलग हो जाया करती है।
बात जड़ की हो या चेतन की, सभी किसी न किसी ऋण की वजह से जुड़ते और अलग होते हैं। यह बात व्यक्ति से लेकर वस्तु सभी के लिए समान रूप से लागू होती है। व्यक्ति का मिलना-बिछड़ना हो या फिर वस्तुओं का संयोग-वियोग। हर मामले में सभी प्रकार के संबंध काल सापेक्ष और ऋणानुबंध से बंधे हुए होते हैं।
दुनिया में चाहे किसी के प्रति कितना आकर्षण, चकाचौंध भरा मोहपाश और सारी सुविधाएं हों, स्वर्ग की तरह भोग-विलास के संसाधन हों और किसी भी प्रकार की कोई कमी न हो, तब भी संबंधों को रहना तभी तक है जब तक कि एक-दूसरे का पूर्वजन्म का हिसाब चुकता न हो जाए। जैसे ही लेन-देन पूरा हो जाता है सब अपनी-अपनी राह ले लिया करते हैं। चाहे वह प्रेमपूर्वक पृथक हो जाएं अथवा संघर्ष की भूमिका के साथ।
पूरा का पूरा संसार इसी गणित पर टिका हुआ है। इसे कोई स्वीकार करे या न करे, मगर शाश्वत सत्य और यथार्थ तो यही है। दुनिया में लोगों का मिलना और बिछुड़ना एक सामान्य घटना है जिससे कोई इंकार नहीं कर सकता। प्रेम, मोह, क्रोध, वैराग्य, मैत्री और शत्रुता की भावनाओं के अनुरूप इनके प्रति लगाव या अलगाव की मानसिक अवस्थाओं में भिन्नता होना मानव स्वभाव के अनुसार स्वाभाविक है।
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