प्रेम ईश्वर को पाने का सुगम मार्ग है यह इंसानो के पाने के लिए नहीं,,!स संपादक शिवाकांत पाठक!

 


 इक साँवला नवकिशोर यति जिसने स्वयं को श्री द्वारिकाधीश का निज सेवक बताया , उसके आने से मीरा थोड़ा प्रसन्नचित्त दिखाई देने लगी। वह जोगी , मीरा के प्रति ठाकुर जी का विरह वर्णन करता जाता था और मीरा भी प्रभु की अन्तरंग वार्ता श्रवण कर हर्ष-विह्वल हो रही थी।


 जोगी मीरा को द्वारिका धीश का संदेश देते कहने लगा ," क्या कहूँ देवी ! आपको देखकर ही स्वामी की आकुलता समझ में आती हैं ।आप तो उनके ह्रदय में विराजती हैं। आप चिंता त्याग दें !! प्रभु आपको अपनाने शीघ्र ही पधारेंगे.. और फिर उनसे कभी वियोग नहीं होगा। मुझे उन्होंने आपके लिए यही संदेश देकर भेजा हैं।" योगिराज ने मीरा को सांत्वना देते हुये कहा ।

मीरा प्रभु का स्नेह से परिपूर्ण सन्देश सुन हर्ष से विव्हल हो उठी । कितने ही दिनों के पश्चात वह प्रसन्नता से पाँव में नुपुर बाँधकर, करताल ले नृत्य करने लगी। मीरा के प्रसन्न ह्रदय की फुहार ने उसके रचित पद की शब्दावली को भी आनन्द से भिगो दिया ........


सुरण्या री म्हें तो ' हरि आवेंगे आज ।

मेहलाँ चढ़चढ़ जोवाँ सजनी कब आवें महाराज।।

दादुर मोर पपीहा बोले कोयल मधुराँ साज ।

उमड्यो इन्द्र चहूँ दिश बरसे दामन छोड्या लाज।।

धरती रूप नव-नव धार्या इंद्र मिलण रे काज।

मीरा रे प्रभु गिरधर नागर बेग मिलो महाराज ।।


 यति और दासियाँ मीरा को यूँ प्रसन्न देख आनन्दित हुये । जब-जब यति जाने की इच्छा प्रकट करता तो मीरा चरण पकड़कर रोक लेती - " कुछ दिन और मेरे प्यासे कर्णो में प्रभु की वार्ता रस सुधा-सिंचन की कृपा करें !! "

..........और मीरा के अश्रु भीगे आग्रह से बंधकर योगी भी ठहर जाते। मीरा ने एक बार भी उनसे उनका नाम, गावं या काम नहीं पूछा, केवल बारम्बार प्रभु के रूप-गुणों की चर्चा सुनाने का अनुरोध करती, जिसकी एक-एक सुधा-बूँद शुष्क भूमि-सा प्यासा उसका ह्रदय सोख जाता । वह बार-बार पूछती ," कभी प्रभु अपने मुखारविंद से मेरा नाम लेते हैं ?? कभी उनके रसपूर्ण प्रवाल अधरों पर मुझ विरहिणी का नाम भी आता हैं:?? वे मुझे किस नाम से याद करते हैं योगिराज ?? सबकी तरह मीरा ही कहते हैं कि ........!"


 '' देवी ! वे आपको मीरा कहकर ही स्मरण करते हैं। जैसे आप उनकी चर्चा करते नहीं अघाती ( थकती ), वैसे ही कभी-कभी तो हमें लगता हैं कि प्रभु को आपकी चर्चा करने का व्यसन हो गया हैं । वे जैसे ही अपने अन्तरंग जनों के बीच एकांत में होते हैं , आपकी बात आरम्भ कर देते हैं। देवी वैदर्भी ने तो कई बार आग्रह किया आपको बुला लेने के लिए अथवा प्रभु को स्वयं पधारने के लिये ।"


 सच कहते हैं भगवन ? प्रभु के पाटलवर्ण उन सुकोमल अधरों पर दासी का नाम आया ?' कहकर, जैसे वे स्वयं प्रभु हो , धीरे से अपने नाम का उच्चारण करती - ' म़ी....... रा ।' मीरा फिर कहती - ' भाग्यवान अक्षरों ! तुम धन्य हो !! तुमने मेरे प्राणधन के होठों का स्पर्श पाया हैं !! स्पर्श पाया हैं उनकी मुख वायु का !! कहो तो , किस तपस्या से , किस पुण्य बल से तुमने यह अचिन्त्य सौभाग्य पाया ? ओ भाग्यवान वर्णों ! वह राजहंस सम धवल ( श्वेत ) पांचजन्य ही जानता हैं उन अधरों का रस ...... इसलिए तो मुखर पांचजन्य उस सुधा - मधुरिमा का जयघोष करता रहता हैं यदा-कदा । "........वह हंसकर कहती और नेत्र बंद कर मुग्धा-सी धीरे-धीरे अपना ही नाम उच्चारण करने लगती । मीरा की वह भावमग्न दशा देखकर योगी उसकी चरण-रज पर मस्तक रख देते ,उनकी ( यति ) आँखों से निकले आँसुओं से वह स्थान भीग जाता ।


 वह दिन आ गया जब योगी ने जाने का निश्चय कर अपना झोली - डंडा उठाया। मीरा उन्हें रोकते हुए व्याकुल हो उठी - '' आपके पधारने से मुझे बहुत शान्ति मिली योगीराज ! अब आप भी जाने को कहते हैं, तब प्राणों को कैसे शीतलता दे पाऊँगी । आप ना जाये प्रभु !! न जाये !! "

एक क्षण में ही मानो जैसे आकाश में विद्युत दमकी हो ......ऐसे ही योगी के स्थान पर द्वारिकाधीश हँसते खड़े दिखलाई दिये..... और दूसरे ही क्षण अलोप!!!!!


मीरा व्याकुल हो उठी ........

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