शिक्षा का व्यापार लाभ की भावना जनकल्याण की भावना को निगल रही!हरिद्वार!
स संपादक शिवाकांत पाठक!
( एक अनपढ़ व्यक्ति जब आई पी एस को कमांड देता है तब शर्मसार होती है शिक्षा )
जब नर्सिंरी क्लास में एडमिशन के लिए एक सामान्य वर्ग की माँ अपने बच्चे को लेकर किसी विद्यालय में जाती है और वहाँ पर उसे 2000 रूपये फीस बताई जाती है तब उसे महसूस होता है की शिक्षा वास्तव में व्यवसाय नहीं व्यापार है,, उसे बेटे का भविष्य एक पहाड़ की तरह नजर आता दस बारह हजार रूपये में बारह घंटे काम करने वाली माँ की आँखो में आशू आते होंगे,, क्यों की अगर वह उसे सरकारी स्कूल में पढ़ाएगी तो बेटे के दोस्त ताने मारेंगे,, बेटा अंदर ही अंदर हीन भावना से ग्रसित होगा,, और यदि किसी तरह वह पढ़ाती भी है तो अधिकारी बनने के वावजूद राजनेताओं के हुक्म मानने के लिए उसे विवस होना पड़ेगा,, बस यही है हमारे देश की सच्चाई,, यह है हमारा सिस्टम जिस पर हम सभी गर्व महसूस करते हैँ,,,
शिक्षा का उद्देश्य कल्याणकारी है, जिसकी व्यवस्था की जिम्मेदारी राज्य सरकारों की है, शिक्षा को व्यवसाय बनाना बुरा नहीं है, लेकिन व्यापार बनाना बुरा है। क्योंकि तब लाभ कमाने की भावना जनकल्याण की भावना को निगल लेती है। शिक्षा मानवता के लिए है लेकिन हमने जो तरीका अपनाया है, वह गलत है। शिक्षा ने लोगों के बीच कई दीवारें खड़ी कर दी हैं। अमीर और गरीब की खाई बहुत चौड़ी हो चुकी है। माहौल ऐसा है कि बच्चों के मन में स्कूल या शिक्षक के प्रति कोई श्रद्धा नहीं रह गई, वहीं शिक्षा संस्थानों की बच्चों के प्रति कोई संवेदना नहीं रही है।
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