भारतीय संस्कृति के अनुसार,,राजधर्म क्या है? क्या आप जानते ? नहीं ,, तो पढ़िए!
*भारत के पुरुष प्रभु राम ने बताया राजधर्म!!👈👈👈👈👈*
*स. संपादक शिवाकांत पाठक!*
*हमारा उद्देश्य किसी भी जाति या धर्म या वर्ग विशेष की आस्था अथवा भावना को क्षति पहुंचना नहीं है वल्कि भारतीय संस्कृति की प्राचीनता को जन जन तक पहुंचाने का प्रयास है👈👈👈👈*
अब जानते हैं कि मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने राजधर्म की क्या व्याख्या की थी। उन्होंने बताया था कि जब भी कोई नागरिक राजमुकुट धारण कर एक राजा की पदवी स्वीकार कर लेता हैं तो वह अपना संपूर्ण जीवन प्रजा हित के लिए न्यौछावर कर देता है। राजा बनने के पश्चात उसकी पदवी तो बढ़ जाती हैं लेकिन साथ में उसके कर्तव्य उत्तरदायित्व भी अत्यधिक बढ़ जाते है।एक राजा के लिए निजी सुख दुःख, परिवार या अपने इत्यादि कुछ मायने नही रखता क्योंकि उसके लिए पूरी प्रजा उसका परिवार होती है। उसे कोई भी निर्णय अपनी प्रजा के मत के अनुसार ही करना राजधर्म है चाहे वह निजी तौर पर उससे सहमत हो या असहमत। क्यों कि एक राजा के लिए उसका अपना निजी कुछ भी नहीं होता,, एक उत्तरदायी राजा होने के नाते वह केवल उन्हें समझा सकता हैं लेकिन अपनी प्रजा के मत के विरुद्ध कोई भी निर्णय नही ले सकता। प्रजा का सुख ही उसका सुख होता है !
एक राजा को प्रजा का निर्णय हर स्थिति में स्वीकार करना ही होगा तभी वह राजा हैं वरना वह राजा कहलाने का अधिकारी नहीं होता। राजा का अर्थ ही यह हैं कि वह प्रजा के द्वारा चुना गया हैं तथा उसके मत से प्रजा की अधिकांश जनता सहमत हैं। ऐसे में राजा का मत यदि प्रजा की अधिकांश जनता के विरुद्ध हैं तो इसका अर्थ यह हुआ कि उसको राजा बने रहने का कोई अधिकार नही। अंतिम निर्णय केवल और केवल प्रजा का ही होगा चाहे वह धर्म या निति विरुद्ध ही क्यों न हो।इस प्रकार प्रभु श्रीराम ने एक राजा के राजधर्म की सीधी तथा सरल भाषा में व्याख्या की हैं जो राजधर्म के मूल्यों को स्थापित करती है।
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