आधुनिक व्याधि कोविड के परिप्रेक्ष्य में आयुर्वेद के मूलभूत सिद्धान्त ! डॉ कंचन जोशी!

 



स. संपादक शिवाकांत पाठक!





आयुर्वेद विश्व की प्राचीन चिकित्सा पद्धति है जो अनंतकालीन परम्परा से किसी न किसी रूप में सम्पूर्ण विश्व में व्यवहत ( व्यवहार ) हो रही है । इसके सिद्धान्त जितने प्राचीन काल में प्रासंगिक थे उतने की आधुनिक काल में भी प्रासंगिक है क्योकि आयुर्वेद का मूलभूत सिद्धान्त भी यही है । स्वस्थस्य स्वास्थ्य रक्षणम् । आतुरस्य विकार प्रशमनम् च ।। संहारक विकार = कोरोना अर्थात- स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा करना है और रोगी व्यक्ति के रोग दूर करना । यह आयुर्वेद का जो मूल सिद्धान्त है इस कोरोना महामारी में बिल्कुल सटीक है । आयुर्वेद में रोगों का कारण मिथ्याहार - विहार , प्रज्ञापराध और परिणाम बताया है । जानबूझकर अनुचित आहार - विहार का सेवन एवं काल , ऋतु , जल , वायु के विपरित गुण अथवा दृष्टि के कारण कोरोना महामारी जैसी जनपदोध्वंस ( ऐपिडेमिक ) व्याधियां उत्पन्न हो जाती है । 





आयुर्वेद क्षेत्र एवं बीज सिद्धान्त में विश्वास करता है यदि व्यक्ति उचित आहार विहार द्वारा निदानो से दूषित दोषो का समय समय पर शमन करके शरीर के दूषित दोष मलो को पंचकर्म द्वारा शरीर से बाहर निकालता रहता है तो रोगाणु शरीर में व्याधि उत्पन्न करने में असमर्थ हो जाते हैं नही रह पाते उसी शक्ति को आयुर्वेद में बल व्याधि क्षमता अथवा रोग प्रतिरोधक क्षमता कहते है । जो सहज ( जन्मनः ) और अर्जित प्रकार की रोग प्रतिरोधक क्षमता को उचित आहार - विहार , योगाभ्यास , प्राणायाम , ध्यान , रसायन अथवा वैक्सीनेशन द्वारा उत्पन्न कर सकते है आयुर्वेदिक दृष्टिकोण से विचार करने पर कोविड वात , कफ प्रधान है , मेडिकल साइस में इसे एरोसोल इंफेक्शन कहते है । यह इंफेक्शन वायु के द्वारा फैलता है आयुर्वेद भी कहता है पित्तं पंगु कफ पंगु पंगवो मल धातवः वायुना यत्र नीयन्ते तत्र गच्छन्ति मेघवत् ।। अथार्त- जैसे आसमान में वायु ही बादलो को एक जगह से दूसरे जगह पर लेकर जाती है , उसी तरह से शरीर में दोष , धातुए और मल अपनी सभी कियाओ के लिये पूरी तरह से वात दोष पर निर्भर है । त्रिदोषज ज्वर तुल्य व्याधि है जिसमें ज्वर , कास , गलग्रह ( गला खराब होना ) , क्षुधानाश ( भूख न लगना ) , शरीर में दर्द और श्वास कष्ट के लक्षण देखने को मिलते है । जिसको ज्वर चिकित्सा के सिद्धान्त लंघन , पाचन , ( 1. दालचीनी , तुलसी , लोंग , कालीमिर्च , अदरक पानी में उबालकरकास नाशक , श्वाससहर औषधियों . गुनगुना लेना उचित ) ( 2. हल्दी वाला दूध ) ज्वर नाशक एंव खाद्य पदार्थ यथा पित्त नाशक- लौकी , तोरई , परवल , टिंडा वात नाशक- मूंग , मसूर , मल्का , काला चना कफ नाशक- लौंग , जावत्री , अदरक , जीरा , आजवाइन का प्रयोग करके शान्त किया जा सकता है । आयुर्वेद में रोगाणुओ अथवा कृमि ( कीटाणु ) को भी रोगों का कारण माना है । इसमें आचार्य सुश्रुत ने प्रंसगात् गात्र संस्पर्शात निःश्वासात , सहभोजनात । सहश्य्या सनाचापि , वस्त्र , माल्यानुलेपनात ।। कुष्ठम , जवरश्च शोषच , नेत्राभिष्यदं एव च । औपसर्गिक रोगाश्य संकामन्ति नरान्नरम ।। ( सुश्रुत संहिता ) अथार्त- परस्पर स्पर्श , श्वास को बाहर निकालने , एक थाली में भोजन करने से , एक ही शय्या पर सोने , एक दूसरे का वस्त्र , माला , आभूषण पहनने से.एक संकमित रोगी से दूसरे को कुष्ठ , ज्वर शोष ( तपेदिक ) टी 0 बी 0 एवं नेत्र फ्लू जैसी औपसर्गिक ( संकामक ) रोग दूसरे व्यक्ति को हो जाते है इस प्रकार के संपर्क से बचाव करके ( क्वारंटाइन रहना , मास्क , किट , उचित दूरी ) हम कोरोना जैसे संकामक बिमारी का प्रसार रोक सकते है

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