खुद को जानना ही ज्ञान की उपलब्धि है! स. संपादक शिवाकांत पाठक!
_‘प्रज्ञानम ब्रह्म’ अर्थात् ब्रह्म परम चेतन है :_ यह ऋग्वेद का कथन है।
यजुर्वेद का सार है _'अहम् ब्रह्मास्मि’ अर्थात् मैं ब्रह्म हूं।_
सामवेद का कथन है _‘तत्वमसि’ अर्थात् वह तुम हो।_
अथर्ववेद का सारतत्व कहता है _‘अयम आत्म ब्रह्म’ अर्थात् यह आत्मा ब्रह्म है।_
ये सारे महान कथन भिन्न-भिन्न हैं और भिन्न-भिन्न प्रकार से उनकी व्याख्या की गई है, किंतु वे सब एक ही दिव्यता की ओर इशारा करते हैं और उनका विषय केवल दिव्यता है। दिव्यता तो दिव्य से जुड़ा है दिव्य कौन है ईश्वर ही दिव्य है और वह हमारे अंदर ही है जिसे हम कभी खोजना नहीं चाहते जिसके करीब नहीं जाना चाहते वही ईश्वर है वही अविनाशी है जिसका कभी विनाश नहीं होता ! लेकिन हम जिसे जानते हैं चाहते हैं प्रेम करते हैं वह सबकुछ नस्ट होना है उन सभी का विनाश सुनिश्चित है हम विनाशी चीजों को सत्य समझते हैं!
पहला कथन है, प्रज्ञानाम ब्रह्म,, प्रज्ञान क्या होता है? क्या वह केवल बुद्धि और चातुर्य है? प्रज्ञान शरीर में, मन में, बुद्धि में, अहम में, सब में विद्यमान होता है। प्रज्ञान जड़ और चेतन दोनों में रहता है। उसे हम निरंतर संपूर्ण चेतना कहते हैं। चेतना क्या होती है? चेतना का अर्थ है जानना। क्या जानना? थोड़ा कुछ या टुकड़े टुकड़े में जानने को चेतना नहीं कहते हैं। यह संपूर्ण ज्ञान होता है।
_यह उस दिव्य तत्व जो जड़ और चेतन दोनों में निहित है, उसका ज्ञान होना ही संपूर्ण चेतना है। वास्तव में प्रज्ञान और ब्रह्म एक दूसरे के पर्यायवाची हैं, वे दो अलग वस्तुएं नहीं हैं।_
ब्रह्म क्या है? ब्रह्म वही है जो सर्वव्यापी हैं, यह वृहद तत्व का सिद्धांत है। संपूर्ण सृष्टि ही वृहद है या शक्तिशाली विशाल सूत्र है। इस संपूर्ण ब्रह्मांड में ब्रह्म व्याप्त है। सरल भाषा में ब्रह्म का अर्थ होता है, सर्वत्र फैला हुआ। वह चारों ओर व्याप्त है, एक सद्गुरु भी इन गुणों से युक्त होता है।
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