अगर हमारे घर के अन्दर और आस-पास कचरा फैला हो, नालियाँ बजबजा रही हों तो हम क्या करते हैं?
स संपादक शिवाकांत पाठक,,
हम उसे साफ़ करते हैं! जनप्रतिनिधियों को घेरते हैं कि नालियों की सफ़ाई करवायें। अन्यथा हम और हमारे बच्चे बीमार पड़ने लगते हैं। लेकिन आज पूरे देश में मोबाइल, सोशल मीडिया और टेलीविजन आदि के माध्यम से जो अमानवीय कचरा हमारे बच्चों के दिमागों में भरा जा रहा है उसके बारे में क्या हमने कभी सोचा है?
क्या हमने सोचा है कि यह कुसंस्कृति किस तरह हमारे बच्चों के अन्दर संवेदनशीलता, जिज्ञासा, कल्पनाशीलता, रचनात्मकता, सामूहिकता, न्यायबोध और तर्कपरकता को विकसित होने से पहले ही उनके भीतर हिंसा, अकेलापन, स्वार्थपरता, अश्लीलता, अन्धविश्वास का ज़हर भर देता है। इसलिए अगर हम इस भयंकर स्थिति के बारे में गम्भीरता से नहीं सोचते और ज़रूरी क़दम नहीं उठाते तो यह कुसंस्कृति हमारी वर्तमान पीढ़ी को तो बर्बाद ही कर रही है लेकिन आने वाली पीढ़ियों की मानवीय संवेदना ख़त्म कर उन्हें अमानवीयता और बर्बरता के दलदल में धकेल देगी।
रिपोर्टों के मुताबिक़ 12 साल की उम्र तक के 42 फ़ीसदी बच्चे टीवी, मोबाइल, टैबलेट आदि से हर दिन औसतन 2 से 4 घण्टे इससे ज़्यादा उम्र के बच्चे दिन का 47 फ़ीसदी वक़्त यानी लगभग 10 घण्टे मोबाइल फ़ोन की स्क्रीन देखकर बिताते हैं। मोबाइल, टीवी, सोशल मीडिया पर बच्चे लगातार तरह-तरह के हिंसक वीडियो गेम खेलते हैं, अश्लील, फूहड़, मार-काट के रील्स स्क्रॉल करते रहते हैं।
टीवी पर आम तौर आने वाली ज़्यादातर फ़िल्मों और धारावाहिकों में फूहड़ता, हिंसा, अवैज्ञानिकता, नशाखोरी, साम्प्रदायिक उन्माद, अन्धराष्ट्रवाद तथा अपराध और छेड़खानी का महिमामण्डन होता है। वहीं विज्ञापनों के ज़रिए भी लगातार जंक फूड की लत लगाने, गैरज़रूरी सामानों की चाहत पैदा करने, गरीब विरोधी, स्त्रीविरोधी मूल्य आधारित प्रचार अन्धाधुन्ध किया जाता है।
भोजपुरी फ़िल्मों, गानों और दक्षिण भारत की बहुतेरी फ़िल्मों में तो भयानक फूहड़ता-अश्लीलता, अविश्वसनीय तरीके की मार-धाड़ भरी रहती है। इसी तरह ओटीटी प्लेटफॉर्म्स से 2016 से 2020 के दौरान अश्लील सामग्री फैलाने के मामले में 1200 प्रतिशत और यौन उत्पीड़न के इरादे से किये गए साइबर क्राइम के मामले में 479 प्रतिशत की वृद्धि हुई।
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