सत्ता की रखैल बनी मीडिया से आप क्या उम्मीद कर सकते हैं ????? मुकेश राणा!
स. संपादक शिवाकांत पाठक!
_देश की मीडिया अभी अपनी विश्वसनीयता के सबसे बड़े संकट से रूबरू है। इलेक्ट्रोनिक मीडिया हो या प्रिंट मीडिया, उसपर सत्ता और पैसों का दबाव वैसा कभी नहीं रहा था जैसा आज दिखता है।_
वज़ह साफ़ है। चैनल और अखबार चलाना अब अब कोई मिशन या आन्दोलन नहीं रहा। राष्ट्र के पास ही जब कोई मिशन, कोई आदर्श, कोई गंतव्य नहीं तो मीडिया के पास भी क्या होगा ? 'जो बिकता है, वही दिखता है' के इस दौर में पत्रकारिता अब खालिस व्यवसाय है।
_उसपर अब किसी लक्ष्य के लिए समर्पित लोगों का नहीं, बड़े और छोटे व्यावसायिक घरानों का लगभग एकच्छत्र कब्ज़ा है। देश के मुट्ठी भर जो लोग मीडिया को लोकचेतना का आईना बनाना चाहते हैं, उनके आगे साधनों के अभाव में प्रचार-प्रसार और वितरण का बड़ा संकट है।_
कुल मिलाकर मीडिया का जो वर्तमान परिदृश्य है, उसमें दूर-दूर तक कोई उम्मीद नज़र नहीं आती।
वैसे इस देश ने अभी पिछली सदी में आज़ादी की लड़ाई के दौरान पत्रकारिता का स्वर्ण काल देखा है। देश की आज़ादी, समाज सुधार, धार्मिक सहिष्णुता और जन-समस्याओं के समाधान को समर्पित अखबारों और पत्रकारों की सूची बहुत लंबी रही है !
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