प्रेतात्माएँ मनुष्य के अच्छे बुरे कार्यों में साथ होती हैं!
स. संपादक शिवाकांत पाठक!
जीवन-काल में मनुष्य की जो वासना सबसे अधिक प्रबल और स्थायी होती है, वही वासना मृत्यु के बाद भी प्रबल और स्थायी रहती है। उसी वासना की तृप्ति के लिए वह बराबर प्रयासरत रहती है। प्रेतात्माओं की अपनी श्व-शक्ति होती है। प्रेतयोनि केवल भोगयोनि है।_
मनुष्य- योनि कर्म और भोग योनि दोनों है। भौतिक शरीर द्वारा कर्म भी किया जाता है और भोग भी भोगा जाता है। इसीलिए प्रेतात्माएँ जैसी भोग शरीरधारी आत्माएं मनुष्य के शरीर को माध्यम बनाकर भोग भोगती हैं और तृप्ति का अनुभव करती हैं।
_जैसे कोई व्यक्ति शराबी रहा है जीवन में। मरने के बाद पार्थिव शरीर के अभाव में शराब तो पी नहीं सकता, इसलिए जो व्यक्ति शराब पीता होगा, उसके अचेतन मन में प्रभाव डाल कर उसकी प्रेतात्मा उसे प्रेरित करेगी और जब वह शराब पीने लगेगा तो वह प्रेतात्मा शराब के तत्वों और गुणों को ग्रहण कर तृप्ति अनुभव करेगी मगर उसका जरा-सा भी पता उस शराब पीने वाले व्यक्ति को न लगेगा।
इसी प्रकार जो खूनी और डकैत आत्माएं होती हैं, वे जीवित व्यक्तियों पर प्रभाव डाल कर उससे खून, क़त्ल और चोरी करवा देती हैं और उसके परिणामों में सुख अनुभव करती हैं। सहसा बिना किसी पूर्व योजना के, आवेशवश, कोई काम चाहे अच्छा हो या बुरा हो--किसी के द्वारा हो जाता है तो उसकी पृष्ठभूमि में इसी प्रकार की अतृप्त प्रेतात्माओं की वासनाएं ही रहती हैं।
जीवन- काल में जिस किसी व्यक्ति को कोई अच्छी-बुरी आदत नहीं रही है और एकाएक लग जाती है, तो उसके लिए भी प्रेतात्माओं की अदृश्य प्रेरणा ही समझनी चाहिए। एकाएक कोई चोर साधू बन जाता है।
कोई-कोई व्यक्ति पूरे जीवन अच्छे और भले काम करते हैं, लेकिन अचानक उनके भी स्वभाव और विचारों में परिवर्तन हो जाता है।
इन सबका क्या रहस्य है पढ़िए
जब कभी कोई व्यक्ति किसी विषय में गहराई से विचार करता है अथवा कोई गम्भीर चिंतन-मनन करता है तो उस व्यक्ति की भावनाओं के अनुकूल अनेक प्रेतात्माएँ उसके चारों ओर अदृश्य रूप से मडराने लगती हैं।
_इसी प्रकार जहाँ कोई दुर्घटना घटित होती है, सामूहिक मृत्यु होती है, जहाँ कोई मरणासन्न अवस्था में होता है, वहां उस स्थान पर प्रेतात्माएँ सामूहिक रूप से चक्कर काटने लगती हैं।_
जहाँ पति-पत्नी सहवास-रत होते हैं या जहाँ बच्चा पैदा होने वाला होता है, वहां भी प्रेतात्माएँ मडराने लगती हैं।
जहाँ जिस स्थान पर भयंकर दुर्घटना होने वाली होती है, वहां उस स्थान पर प्रेतात्माएँ पहले से ही उपस्थित हो जाया करती हैं। कभी-कभी तो यह देखने में आता है कि प्रेतात्माएँ स्वयं दुर्घटनाओं और सामूहिक मौतों का आयोजन करती हैं, मगर ऐसा निकृष्ट आत्माएं ही करती हैं।
_इससे उनको सुख और तृप्ति मिलती है। इस प्रकार से जो लोग मरते हैं, उन्हें वे प्रेतात्माएँ अपने समाज में मिला लेती हैं।_
मरणासन्न व्यक्ति को भी बहुत परेशान करती हैं प्रेतात्माएँ। मरने वाला व्यक्ति यह समझता है कि वे यमदूत हैं। कभी-कभी प्रेतात्माएँ तुरंत मरे हुए व्यक्ति के शव में प्रवेश कर जाती हैं और हडक़म्प मचाती हैं।
इसीलिए परिजन लोग शव के निकट ही आग रखते हैं, दीपक जलाते हैं और शव को अकेला भी नहीं छोड़ते।_
प्रेतों का जीवन अत्यन्त कष्टमय होता है। पार्थिव शरीर के अभाव में वासना- वेग के कारण असीम यातना सहन करनी पड़ती है उन्हें। यही नर्क है। प्रेत-लोक अंधकारमय है। न+अर्क=नर्क। अर्थात् नहीं है अर्क (सूरज) जहाँ, वह स्थान है--नर्क। जहाँ सूरज अथवा उसका प्रकाश नहीं है, वही 'नर्क' है।
जैसे चन्द्रमा पर पन्द्रह दिन रात्रि और पन्द्रह दिन दिन (प्रकाश) रहता है, उसी प्रकार प्रेत-लोक में 350 दिन अन्धकार रहता है और 15 दिन सूर्य का प्रकाश रहता है। उन्हीं पन्द्रह दिनों को 'पित्रपक्ष' कहा जाता है। पितृपक्ष वास्तव में वासना लोक के प्राणियों के लिए सवेरा है।_
देवताओं में 'भाव' प्रधान है। पितरों में 'मन्त्र' प्रधान है। मनुष्यों में 'कर्म' प्रधान है, उसी प्रकार प्रेतों में 'वासना' की प्रधानता है। प्रेतात्माओं के नाम पर दी गयी वस्तुएं भौतिक दृष्टि से भले ही न मिलती हों, मगर अपने नाम से किसी व्यक्ति को वह वस्तु देने मात्र से प्रेत संतुष्ट हो जाते हैं--यही उनकी सन्तुष्टि है, तृप्ति है।
यदि कोई व्यक्ति जीवन-काल में मिठाई अधिक खाता रहा हो और मरने के बाद उसके सगे सम्बन्धी उसके नाम पर मिठाई खिलाते हैं तो उसकी प्रेतात्मा प्रसन्न होती है। वह खाने वाले व्यक्ति के शरीर में प्रवेश कर मिठाई के तत्वों और गुणों को ग्रहण कर लेती है। यही उसकी तृप्ति और सन्तुष्टि है।_
प्रेतात्मा, सूक्ष्मात्मा और जीवात्मा के शरीर में प्रवेश करने का एकमात्र मार्ग ब्रह्मरंध्र होता है। इसके आलावा एक और मार्ग है, वह है--नाभि।
क्या आप जानते हैं कि प्रेत बाधा क्या होती है व उसकी पहचान कैसे करेंगे!
जिस किसी व्यक्ति से प्रेतात्मा की वासना, कामना, इच्छा मिल गयी तो तुरंत वे ब्रह्मरंध्र के मार्ग से उसके शरीर में प्रवेश कर जाती हैं। इसी को पहले प्रकार की प्रेतबाधा कहते हैं। यदि किसी व्यक्ति का किसी प्रेतात्मा से पूर्व जन्म का सम्बन्ध है तो प्रेतात्मा उसे देखते ही अपनी अच्छाई-बुराई का बदला लेने के लिए उसके शरीर में प्रवेश कर जायेगी। यह दूसरे प्रकार की प्रेतबाधा समझी जाती है। रूप, सौंदर्य आदि को महत्त्व देने वाली प्रेतात्माएँ विलासपूर्ण जीवन जीने की आदी रही होती हैं, वे जहाँ जिस स्त्री-पुरुष में अपने अनुरूप रूप, सौंदर्य और विलासिता देखती हैं, उस स्त्री-पुरुष के शरीर में प्रवेश कर उनका उपभोग करने लग जाती हैं। यह तीसरे प्रकार की प्रेतबाधा है।जीवन-काल में जिस स्त्री या पुरुष से सर्वाधिक प्रेम, अपनत्व और सहानुभूति होती है और उससे सहायता भी मिलती है, प्रेतात्माएँ उसकी ओर बराबर आकर्षित रहती हैं। अदृश्य रूप से उसको सभी प्रकार की सहायता भी करती हैं। कभी- कभी उसके शरीर में प्रवेश कर अपनी किसी वासना की पूर्ति भी करती हैं। यह चौथे प्रकार की बाधा है। इसी प्रकार जीवनकाल में जिस स्त्री या पुरुष से छल, कपट, यातना, यंत्रणा, तकलीफ और मानसिक क्लेश मिला होता है और मिला होता है उससे धोखा, प्रेतात्माएँ उससे बदला लेना कभी नहीं भूलतीं। यह पांचवें प्रकार की प्रेतबाधा है।
_प्रेतात्माएँ सबसे पहले उपचेतन मन पर आक्रमण करती हैं। इस अवस्था में व्यक्ति की आत्मा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। लेकिन मन की स्थिति विचित्र हो जाती है। व्यक्ति हमेशा अपने आपमें खोया-खोया-सा, डूबा-डूबा-सा रहता है। वह क्या बोल रहा है, क्या सोच रहा है ?--इन सबका उसे जरा सा भी ख्याल नहीं रहता। उसकी अर्धचेतन स्थिति रहती है।_
;मति-गति भी अर्धविक्षिप्तों जैसी रहती है स्थिति उस व्यक्ति की। उसे नींद बहुत कम आती है। यदि कभी नींद आ भी गयी तो बड़ा भयंकर स्वप्न देखता है।
आग, पानी, कीचड़, खून आदि के सपने अधिकतर दिखलायी पड़ते हैं उसे। बार-बार रोमांच होना, अँधेरे में डर लगना, एकान्त में अधिक रहना, शरीर से दुर्गन्ध निकलना उँगलियों के नखों का पीला पड़ जाना, आत्महत्या करने का प्रयास करना आदि लक्षण भी इसी अवस्था के अंतर्गत हैं।
प्रेतात्माएँ जब उपचेतन मन से चेतन मन को प्रभावित करती हैं तो उस समय व्यक्ति की मानसिक यंत्रणा के साथ- साथ शारीरिक यंत्रणा भी बढ़ जाती है। इसी प्रकार जब चेतन मन की सीमा को लांघ कर प्रेतात्माएँ व्यक्ति की आत्मा पर आक्रमण करती हैं तो चेतन मन अचेतन मन की अवस्था में बदल जाता है।
परामनोविज्ञान इसी को 'मूढ़ावस्था' या 'जड़ावस्था' कहता है। इस प्रकार मन की अचेतन स्थिति में उपचेतन मन अधिक सक्रिय और शक्तिशाली हो उठता है। मगर दूसरी ओर आत्मा प्रेतात्मा से प्रभावित होकर क्षीण होने लगती है।
प्रेत-बाधा की इस भयंकर स्थिति में व्यक्ति को जरा भी ज्ञान नहीं रहता। बाह्य चेतना के अलावा उसकी बाह्य प्रज्ञा भी लुप्त हो जाती है। किन्तु उपचेतन मन के सक्रिय रहने के फल स्वरूप उसके मुख से भूत, भविष्य, वर्तमान से सम्बंधित चमत्कारपूर्ण बातें निकलती हैं। क्योंकि उसके लिए अंतःप्रज्ञा अथवा विराट चेतना का द्वार खुल जाता है।
जितने प्रकार की प्रेत-बाधाएं हैं, उनमें यह प्रेतबाधा सबसे अधिक भयंकर होती है।
इस बाधा में मृत्यु की आशंका हमेशा बनी रहती है। आत्मा की शक्ति क्षीण होने पर प्रेतात्माएँ व्यक्ति को अपने समाज में मिला लेती हैं।
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