क्या भूल गए,,,? समय से ज्यादा चलायमान था गरीब का पाँव !
देखिए मानव जीवन की वास्तविकता
होमडिलीवरी से आई रसद, फल, सब्जी, पिज़्ज़ा, बर्गर का आनंद लेते हुए आप भी एक छोटी सी कल्पना कीजिएगा, कि कैसे जंगल से गुजर रही सड़क के किनारे, जमीन पर पत्तल रखकर खाना खा रहे मजदूरों के सामने आखिर ऐसी क्या मजबूरी आ गई. थी ? जो ये हज़ारो किलोमीटर के सफर में सड़कों को नापने निकल पड़े थे वह नंगे पैर भूखे प्यासे बेगुनाह भारतीय लोग ,वह भी 40-45 डिग्री तक तपते सूरज के बीच। इस हाल में भी वह सारी परेशानी सिर्फ इसलिए भूल जाते थे क्योंकि कई घंटों बाद उन्हें खाना मिलता था!
जब मानवता भी फफक कर रो पड़ी थी लेकिन नहीं पसीजा था सिस्टम का दिल
“ पाँव में छाले पड़े थे , पथ में कंकड़ भी बड़े थे
बोलते थे हम सबल हैं, बन रहे हैं आत्मनिर्भर।”
इतना ही नहीं बल्कि ,आत्मनिर्भर इतने कि दुनियाँ नाप सकते हैं –
कोरोना संकट के दौर में ये भी एक सबक था कि असंगठित क्षेत्र के इस स्वरूप को बदलने के नीतिगत फैसले होने चाहिए थे! उस पर असुरक्षित, अस्थायी, गारंटीविहीन या सामाजिक सुरक्षा विहीन होने का जो ठप्पा लगा था उसे मिटाना मुश्किल होगा। कुशल या अकुशल मजदूरों के पलायन को रोकने और आर्थिक विकास का मजबूत आधार बनाने के लिए हर परिस्थितियों के अनुरूप प्रयास जरूरी था। अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए केंद्र सरकार खुद को राज्यों के साथ सहयोग वाले मॉडल का पक्षधर बताती रही, लेकिन कोरोना पश्चात के समय में ये दिखना भी चाहिए था! परन्तु सोचिए कि दिखा क्या ? बिना मास्क चालान, गैस सिलेंडर, पेट्रोल खाद्य वस्तुओं, सब्जियों आदि के दामों में अचानक बढ़ोत्तरी, बिना मास्क, बिना हेलमेट चालान सब्जी फल सड़क के किनारे बेंचने पर चालान इतना ज्यादा गरीब जनता का उत्पीड़न भारतीय इतिहास में पहली बार दिखा साथ ही तमाम नेताओं को आत्मनिर्भर बनाने के लिए कोरोना काल में भी विकास का अवसर यानी आपदा में अवसर मिला उस संकट की घड़ी में कोई भी सत्ता पक्ष का नेता जनता के बीच नहीं आया क्या यह झूठ है ? और आज प्रतिदिन बड़े बड़े नेता भोली भाली जनता को बेवकूफ बनाने के लिए तरह तरह के प्रलोभन दे रहे हैं यह क्या मतलब परस्ती नहीं है ?? अब जनता इतनी भोली नहीं है यह पब्लिक है सब जानती है !
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