(हां मैं एक सड़क हूं ! मुझे भी पीड़ा होती है )
मुझे पीडा इसलिए नहीं होती है , कि मेरे ऊपर से हजारों गाड़ियां गुजरती हैं । मुझे पीड़ा इसलिए होती है , कि जब मुझे , डामर के काले नकली कपड़े पहनाए जाते हैं ,
और चंद दिन बाद वह कपड़े उधड़ जाते हैं । और मिल जाता है न्योता , इंतजार में बैठी दुर्घटनाओं को ।
मैं फिर दुखी हो जाती हूं , जब खून से मेरे कपड़े लाल हो जाते हैं । मैं कितनी भी कोशिश करती हूं , इन लाल खून के धब्बों से बचने की , लेकिन मैं हर बार विफल हो जाती हूं ।
और लग जाता है , एक और धब्बा । मैं सड़क हूं ! मुझे भी पीड़ा होती है । नेताओं के आगमन पर मुझको सजाया जाता है । सारे दाग धब्बे मिटाए जाते हैं ।
नकली मिलावटी डामर की तब , एक और परत चढ़ाई जाती है । सफेद चूने की लकीरें खींची जाती हैं । और सरपट दौड़ जाती हैं , नेताओं की गाड़ियां । शाम आते - आते फिर मैं आ जाती हूं , अपने उसी पुराने रूप में ।
मेरे चमकीले कपड़े फिर उधड़ जाते हैं । और फिर लाल धब्बों का मुझे डर सताने लगता है । मैं सड़क हूं ! मुझे भी पीड़ा होती है । यह सफेद कुर्ते वाले तो कभी - कभी आते हैं । ये तो बच जाते हैं !
मगर जिन से मैं रोज रूबरू होती हूं , उन्हें घायल होते कैसे देख सकती हूं । उनकी हर चोट पर मेरी आह निकलती है । कौन समझेगा उनका और मेरा दर्द | कब तक मुझे नकली कपड़ों से ढका जाएगा ।
कब तक दुर्घटनाओं को न्योता दिया जाएगा । मैं सड़क हूं ! मुझे भी पीड़ा होती है । क्यों ? नहीं होता खर्च , बजट का शत प्रतिशत मुझे बनाने में ।
क्यों ? बंदरबांट की जाती है , मेरे बजट की । और तुम ' जो बंदरबांट करते हो , मेरे बजट का । तुम कब तक बच पाओगे ।
तुम भी तो एक दिन , मेरी छाती में फिसल कर मर जाओगे । तब वह पैसा किस काम आएगा । मैं सड़क हूं ! मुझे भी पीड़ा होती है ।
रचनाकार= संजय नेगी सजल ' नवोदय नगर हरिद्वार सर्वाधिकार सुरक्षित
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