बच्चियों के साथ होने वाले दुष्कर्म मानवता पर प्रश्न चिन्ह,,?
स.संपादक शिवाकांत पाठक।
( यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः’)
( जब ज़ुर्म के ढेर लग जायें तो ज़ुर्म नज़रों से छुप जाते हैं !! )
उत्तराखंड में महिलाओं और बच्चों के साथ बलात्कार के सबसे अधिक मामले दर्ज किए गए। इसमें हिमाचल प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड, सिक्किम, त्रिपुरा और दो केंद्र शासित प्रदेशों (यूटी), जम्मू और कश्मीर, लद्दाख सहित 9 राज्य शामिल हैं। ये आंकड़े हिमालयी राज्यों में से 2022 के लिए अपराध पर राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट के आधार पर हैं।
देखिये 2022 कि रिपोर्ट 👇🏽
9 पहाड़ी राज्यों में उत्तराखंड रहा था टॉप,,,,
सोमवार को जारी रिपोर्ट के अनुसार, पिछले साल उत्तराखंड में महिलाओं के खिलाफ अपराध के कुल 4,337 मामले दर्ज किए गए, जो 2021 की तुलना में 907 अधिक थे। इसके बाद दूसरे नंबर पर 3,716 मामलों के साथ जम्मू-कश्मीर है। वहीं तीसरे नंबर पर 1,551 मामलों के साथ हिमाचल प्रदेश रहा। पिछले साल उत्तराखंड में बलात्कार के कुल 867 मामले दर्ज किए गए। इसके बाद पड़ोसी राज्य हिमाचल प्रदेश में 359 मामले और जम्मू-कश्मीर में 287 मामले दर्ज किए गए।
हाल ही में देश के विभिन्न हिस्सों में बलात्कार के दिल दहला देने वाले मामले सामने आये हैं। विगत 29 जून को हरियाणा के फ़तेहाबाद ज़िले के एक गाँव में दो युवकों ने एक तीन साल की बच्ची को अगुआ करके उसके साथ दुष्कर्म किया। बच्ची ने घटना के नौ दिन बाद रोहतक पीजीआई में इलाज के दौरान दम तोड़ दिया। दोनों अपराधी पीड़ित बच्ची के परिवार को पहले से ही जानते थे।
28 मार्च को दिल्ली के बवाना में एक पाँच साल की बच्ची की दुष्कर्म के बाद हत्या कर दी गयी। यहाँ भी अपराधी का बच्ची के परिजनों की चाय की दुकान पर पहले से यहाँ आना-जाना था। दिल्ली के बवाना इलाके में ही एक 16 साल की युवती के साथ उसी के स्कूल में पढ़ने वाले चार छात्रों ने सामूहिक दुष्कर्म किया।
28 जून को दिल्ली के नरेला में एक 10 वर्षीय बच्ची की दुष्कर्म के बाद हत्या कर दी गयी। यहाँ भी दोनों अपराधी बच्ची के घर के पड़ोस में ही रहते थे। ये तो कुछ ही घटनाएँ हैं जिनका ऊपर ज़िक्र किया गया है।
ऐसे अपराधों की संख्या इतनी ज़्यादा है कि बहुसंख्यक आबादी ने इनके होने को अपनी नियति मान लिया है।
कोई भी दिन नहीं जाता जब देश के किसी न किसी कोने में कोई न कोई बच्ची हवस का शिकार न होती हो। कहीं शिक्षक छात्राओं के उत्पीड़न में शामिल दिखते हैं, कहीं बालिका गृहों में बच्चियों पर यौन हिंसा होती है, कहीं झूठी शान के लिए लड़कियों को मार दिया जाता है, कहीं सत्ता में बैठे लोग स्त्रियों को नोचते हैं, कहीं जातीय या धार्मिक दंगों में औरतों पर ज़ुल्म होता है
ऐसा कोई क्षण नहीं बीतता जब बलात्कार या छेड़छाड़ की कोई घटना न होती हो! कोई भी पार्टी सत्ता में आ जाये किन्तु स्त्री विरोधी अपराध कम होने की बजाय लगातार बढ़ते ही जा रहे हैं। कोई भी उम्र, धर्म, जाति और क्षेत्र स्त्रियों के लिए सुरक्षित नहीं है।
ये स्त्री विरोधी अपराधियों का भी धर्म और जाति देखकर विरोध और समर्थन करते हैं तथा किसी भी घटना को दंगे भड़काने के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं!
जब ज़ुल्म बढ़ जाता है तो लोग उसे अपनी नियति मान बैठते हैं और सहन करना एक आदत बन जाती है! आज ठीक ऐसा ही हो रहा है। भयंकर किस्म के स्त्री विरोधी अपराधों को अंजाम दे दिया जाता है और लोग अन्धे-बहरे-गूंगे बने देखते रहते हैं जैसे कि कुछ हुआ ही न हो!
तीन साल की बच्ची से लेकर 70 साल की बुज़ुर्ग महिला तक देश में सुरक्षित नहीं है। एनसीआरबी के आँकड़ों के मुताबिक़ साल 2022 में 4,45,256 स्त्री विरोधी आपराधिक मामले दर्ज़ हुए।
2016 में इनकी संख्या 3,38,954 थी और 2012 में इनकी संख्या 2,44,270 थी। स्त्री विरोधी अपराध समाज पर बारिश की तरह बरस रहे हैं। इसके बावजूद समाज से इनके प्रतिरोध का स्वर बहुत विरल, क्षीण और गायब सा है। एक ओर स्त्री विरोधी अपराधों की बमबारी जारी है दूसरी ओर लगता है समाज के सामूहिक विवेक को जैसे लकवा मारा हुआ है।
हमारा समाज हद दर्जे का पाखण्डी है! एक तरफ यहाँ स्त्री को देवी का दर्जा दिया गया है, ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः’ की माला जपी जाती है किन्तु दूसरी तरफ गर्भ से लेकर बुढ़ापे तक ज़िल्लत भी स्त्रियाँ ही झेलती हैं। पितृसत्ता की सड़ी मानसिकता समाज में क़ायम है जो औरत को पैर की जूती, भोग्या, पुरुष की दासी और बच्चा पैदा करने की मशीन समझती है।
पूँजीवाद ने पितृसत्ता का अपने साथ तन्तुबद्धिकरण (sublation) करके कोढ़ में खाज का काम किया है। इस मुनाफ़ाखोर व्यवस्था ने हर चीज़ की तरह स्त्रियों को भी ख़रीदे-बेचे जा सकने वाली वस्तु में तब्दील कर दिया है।
विज्ञापनों व फ़िल्मी दुनिया की ज़्यादातर जगहों पर औरतों के जिस्म को भी एक वस्तु या कमोडिटी के रूप में ही पेश किया जाता है। समाज में जब बेरोज़गारी, नशे, मूल्यहीन शिक्षा, आसानी से उपलब्ध पॉर्न फ़िल्में व अश्लील सामग्री आदि का संयोग होता है तो भयंकर रुग्ण और कुण्ठित किस्म के मानस के निर्मित होने का आधार तैयार होता है।
आज हमारे समाज में यही हो रहा है। देश में इस समय भयंकर बेरोज़गारी का आलम है। मोबाइल फ़ोन के माध्यम से पोर्नोग्राफ़ी, अश्लील वीडियो व फिल्मों तक बच्चे-बच्चे की पहुँच है।
सिनेमा-टीवी-सोशल मीडिया अश्लीलता और भोण्डी संस्कृति के सबसे बड़े पोषक बने हुए हैं। पूरे समाज के वातावरण पर सांस्कृतिक पतनशीलता का घटाटोप छाया हुआ है। नेताशाही से लेकर नौकरशाही तक में बैठे लोग इस सांस्कृतिक पतन में सराबोर हैं।
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