परिवर्तन प्रकृति का संविधान अथवा नियम है इसलिए समय के अनुसार परिवर्तन आवश्यक है !संपादक शिवाकांत पाठक!( आत्म अनुभव)

 



ज्यादातर देखा गया है कि जो दिखता नहीं है उसे सिद्ध करने के लिए प्रमाण की अवस्यकता प्रतीत होती है,, एक उदाहरण के तौर पर आपने न्यायालय में एक काली पट्टी बांधे खड़ी हांथ में तराजू लिए औरत को देखा होगा,, यानी कि कानून के आंखे नहीं होती वह तो साक्ष्य मतलब प्रमाण से ही निर्णय करता है,, कुछ लोग इसे अंधा कानून भी कहते हैं,, क्यों कि जो वकील बहस करते हैं उन्होने घटना को देखा नहीं होता है, जी जज निर्णय करते हैं उन्होने भी घटना को नहीं देखा होता है ,, घटना को बिना देखे समझे सिर्फ सबूतों और गवाहों को प्रमुखता देते हुए किसी भी अपराध का निर्णय कर दिया जाता है,, क्यों कि गीता या कुरान जैसी मजहबी पुस्तकों पर हांथ रखकर कसम खिलाई जाती है,, यानि कि न्याय प्रणाली में धार्मिक ग्रंथों का विश्वास है,,,? लेकिन फिर झूठी गवाही, झूठे बयान,, झूठे सबूत आदि का प्रचलन कैसे शुरू हुआ, और क्यों,,? साथ ही एक और सवाल आज की न्याय व्यवस्था पर नजर आ रहा है वह यह है कि यदि हमारी कानून व्यवस्था या राष्ट्र को सही दिशा दिखाने वाला सिस्टम सही है तो विगत वर्षो में अपराध कम क्यों नहीं हुऐ,,? कम तो छोड़िए वल्कि तमाम तरह की नई तकनीकों द्वारा अपराधों ने नया स्वरुप ले लिया है ,, इसका मतलब कहीं न कहीं हमारे सिस्टम में कमी है ,, क्यो कि देश को न्याय, जनता को प्रत्येक अधिकार प्रदान करने हेतु वर्षों पूर्व बनाए गए नियम कानून समय के साथ परिवर्तन चाहते हैं ,, लेकिन दुर्भाग्य बस उनमें वहीं परिवर्तन किया गया जहां हमारे निजी स्वार्थ सिद्ध होते हैं ,,, आज जन सेवा, राष्ट्र सेवा, महज एक दिखावा प्रतीत हो रही है आखिर क्यों,, सच तो यही है कि जिस देश में शिक्षा, सुरक्षा, स्वास्थ्य का लाभ जनता को सीधे तौर पर मिलता है उन देशों को सफलता की बुलंदियों तक पहुंचने से कोई नहीं रोक सकता,,, यह एक बेहद कड़ुआ मगर ध्रुव सत्य है, जिसे नकारा नहीं जा सकता,, क्यों कि आप एक बार इतिहास के वे पन्ने देखें जिनमें क्रांतिकारियों राष्ट्र प्रेमियों  ने बेहद आभाव ग्रस्त जीवन बिताते हुए राष्ट्र के लिए बलिदान दिया घास की रोटियां खाई लेकिन उनका अपना पुरूषार्थ, कोई खरीद नहीं सका ,, लेकिन आज,,,,? आप खुद बुद्धिमान हैं,, इसलिए लिखने की अवश्यकता नहीं है!

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