असत्य मेव जयते क्या यह वर्तमान का कड़ुआ सच है,,? संपादक शिवाकांत पाठक!(हरिद्वार उत्तराखंड)

 




अब बताइए, झूठ पाप कहां हुआ ? यह तो वाकई, बकौल पन्नालालजी बड़ी तपस्या है, साधना है, जिसे मुश्किलों के बाद प्राप्त किया जाता है।




मान लिया झूठ बोलना पाप है, लेकिन यह बात आज तक समझ में नहीं आई कि लोग क्यों कर क्षण-क्षण में यह पाप करते हैं ? एक बार मैंने झूठ बोला तो मेरे बच्चे ने मुझे टोक दिया-पापा, झूठ बोलना पाप होता है। मैं मन-ही-मन बड़ा हंसा। सोचा बच्चा है, बड़ा होगा तब पता चलेगा कि झूठ बोलना कितना जरूरी है। यह तो समझ में आता है कि कई बार झूठ प्राथमिक तौर पर लाभान्वित करता है, लेकिन किसी ठोस हित का क्रियान्वयन इसके जरिए होता नजर नहीं आया। इसलिए क्षण-क्षण किए जाने वाले इस पाप पर व्यक्ति ही रोकथाम लगा ले तो बुराई नहीं है। दुनिया है, किस-किस को रोकेंगे आप सत्य बोलते हैं, वे झूठ बोलते हैं। कम-से-कम प्रजातंत्र की सार्थकता का तो पता चलता है कि आदमी झूठ या सच कुछ तो बोल रहा है। झूठ कहां नहीं बोला जा रहा ? यानी आप, हम सब बोलते हैं, फिर पता नहीं क्यों इसे पाप माना गया है ? इस विषय पर अगर सविस्तार शोध किया जाए तो निश्चय ही इस पाप के साथ न्याय हो सकने की संभावना है। लेकिन शोध नहीं भी हो तो काम चल जाएगा, क्योंकि आजकल इसका व्यापार खूब फल-फूल रहा है।


मेरे एक मित्र है। यदाकदा लिखते हैं, लेकिन जुबान से वे खूब लिखते हैं। एक दिन मैंने उनसे पूछा-अमां यार, झूठ बोलना पाप है। जरा यह तो बताओ, क्या लिख-पढ़ रहे हो।

मित्र ने उसी पाप का सहारा लिया-लिखना कुछ विशेष नहीं। दो कविता की किताबें दिल्ली से आ रही हैं और एक कहानी संकलन लोकल पब्लिशर छाप रहा है।

दो वर्ष बाद फिर पूछा-क्यों भाई, क्या आ रहा है ? वही बात-एक उपन्यास और आलोचना की पुस्तक आ रही है।

मैंने कहा-अमां यार, आलोचना-उपन्यास भी लिखने लगे? तुम तो कवि हो।

हां…, पिछले दिनों इसमें भी हाथ आजमा रहा हूं, और मजे की बात कि सभी तरह की विधाओं में मेरी पुस्तकें छापने को प्रकाशक भी तैयार हैं। मित्र ने जवाब दिया।




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