समस्या से बिना डरे सुलझाने का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं वीर हनुमान। स.संपादक शिवाकांत पाठक।

 


प्रेम का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत किया हनुमान जी ने ,, क्यों कि उन्हें प्रभु राम से निश्चल प्रेम था,, और जब उन्होने ध्यान मुद्रा में देखा कि प्रभु राम रावण का वध करने हेतु प्रथ्वी पर मानव रुप में अवतार ले चुके हैं तो वे बराबरी ना करतें हुए वानर रुप में अवतरित हुए,, वाह यह है प्रेम का वास्तविक स्वरूप,, जो सिर्फ़ सनातन संस्कृति सभ्यता में निहित है,, जिससे मानव समाज प्रेरणा नहीं ले रहा है,,,


” रुद्र ” देह छोड़कर, भक्तराज श्रीहनुमान् जी महाराज के रूप में अवतरित होते हैं।



जेहि सरीर रति राम, सोइ आदरहिं सुजान। रुद्र देह तजि नेह बस, बानर भे हनुमान।।

जिस शरीर में प्रभु श्रीराम से प्रेम हो जाय, वही शरीर सज्जनों ,सुजनों के आदर का पात्र बन जाता है।

भगवान् ही “प्रेम” स्वरूप सभी चराचर में व्यापक हैं।

हरि व्यापक सर्वत्र समाना।

प्रेम ते प्रकट होहिं मैं जाना।।

अब ,उसी प्रेमास्पद, प्रेममूर्ति भगवान्, का प्रेमानुराग, जगत् को अनुभव कराने के लिए, भगवान् शिव अपना शरीर त्याग कर वानर बन कर प्रभु राम की सेवा में समर्पित हो जाते हैं


डर को जीतने की कला में हनुमान निपुण हैं। कई घटनाएं हैं, जिन्होंने उनके मन में भय पैदा करने की कोशिश की, लेकिन वे बुद्धि और शक्ति के बल पर उनको हरा कर आगे बढ़ गए। डर को जीतने का पहला मैनेजमेंट फंडा यहीं से निकला है कि अगर आप विपरीत परिस्थितियों में भी आगे बढ़ना चाहते हैं तो बल और बुद्धि दोनों से काम लेना आना चाहिए। जहां बुद्धि से काम चल जाए वहां बल का उपयोग नहीं करना।


रामचरित मानस के सुंदरकांड का प्रसंग है सीता की खोज में समुद्र लांघ रहे हनुमान को बीच रास्ते में सुरसा नाम की राक्षसी ने रोक लिया। हनुमान को खाने की जिद करने लगी । हनुमान ने बहुत समझाया, लेकिन वो नहीं मानी। हनुमान जी ने वचन भी दे दिया, कि राम का काम करके आने दो, सीता का संदेश उनको सुना दूं फिर खुद ही आकर आपका भोजन बन जाऊंगा। सुरसा फिर भी नहीं मानी क्यों कि उसे तो परीक्षा लेनी थी हनुमान के साहस बल और बुद्धि की।


वो हनुमान को खाने के लिए अपना मुंह बड़ा करती, लेकिन हनुमान यहां पर बुद्धि का प्रयोग करतें हैं,, और हनुमान उससे भी बड़े हो जाते। वो खाने की जिद पर अड़ी रही, लेकिन हनुमान पर कोई आक्रमण नहीं किया। ये बात हनुमान ने समझ ली थी मामला मुझे खाने का नहीं है, यदि एसा होता तो यह केवल मुंह ना फैलाती,,, ये तो सिर्फ ईगो की समस्या है। तत्काल सुरसा के बड़े स्वरूप के आगे उन्होंने खुद को बहुत छोटा कर लिया इसे कहते हैं बुद्धिमान। जब जहां जैसी परिस्थिति हो उसी तरह से विवेक का इस्तेमाल करना चाहिए। हनुमान जी उसके मुंह में  अंदर जाकर निकल आए। सुरसा बहुत खुश हो गई। आशीर्वाद दिया। लंका के लिए जाने दिया।


जहां मामला ईगो के सेटिस्फैक्शन का हो, वहां बल नहीं, बुद्धि का इस्तेमाल करना चाहिए यही हमारे ऐतिहासिक ग्रंथ कहते हैं,, और यही हनुमान ने सिखाया है। बड़े लक्ष्य को पाने के लिए अगर कहीं झुकना भी पड़े, तो झुक जाइए।



सोचिए जब आपका जन्म और मृत्यु आपके हांथ में नहीं है तो फिर अभिमान या अहंकार किस बात का,, किसी को छोटी सी जगह में जलना है तो किसी को दफन होना है,, फिर किस लिऐ अभिमान वश तमाम गलत कार्य जिन्हे धार्मिक ग्रंथों में पाप कर्म बताया है और फिर भी आप किए जा रहे हैं,,, मृत्यु तो एक ऐसा अटल सत्य है कि जिससे आपको आपका पद, प्रतिष्ठा, दौलत, शोहरत, ताकत,, कोइ भी नहीं बचा सकता,,, बस यह समझिए कि आपको पद का अहंकार ना करतें हुए यह सोचना चाहिए कि ईश्वर ने मुझे इस काबिल समझा कि आज इस पद के जरिए हम मानवीयता पूर्ण कार्य कर सकते हैं,, यहीं एक ऐसी पूंजी है जिसे आप साथ में ले जायेंगे,, बाकी मेरा काम तो लिखना है,, यही कार्य ईश्वर ने मुझे सौंपा है,, इसे भली भांति अनुपालन करना मेरा फर्ज है और कर भी रहा हूं,,,,,


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