राजनीति में राज तो है लेकिन नीति नहीं रह गई,,, क्यों,,?

 


संपादक शिवाकांत पाठक।



राजनीति का सही मायने में अर्थ क्या है,, नीति के साथ राज करने को राजनीति कहते हैं,, राम ने अयोध्या में नीति के साथ राज किया वे भेष बदल कर रात्रि में अपनी नगरी में घूम कर देखते थे कि हमारी प्रजा के अंदर हमारे प्रति क्या आस्था है,, नगरी में रहने वाले एक साधारण व्यक्ति के मुंह से उन्होने स्वयं सुना था कि उसने अपनी पत्नी से कहा कि मैं राम नहीं हूं जिसने लंका में रहकर आई सीता को पुन: अपना कर सिंहासन पर बैठा लिया,, इस लोकापवाद को भी राम ने राज की नीति पर चलते हुए त्याग और बलिदान का सहारा लेकर समाप्त करने हेतु सीता जैसी पवित्र पत्नी को त्याग दिया,, यह है भारतीय संस्कृति का दर्शन,, जो कि अब देखने को नहीं मिलता,,


दूसरा उदाहरण लंका में देखने को मिला जिसे कि राक्षसों की नगरी कहा जाता था लेकिन वहां भी नीति का स्पष्ट उल्लेख मिलता है,, जब रावण के प्रश्नों के उत्तर हनुमान निर्भीकता से देते हैं तो रावण गुस्से में हनुमान का वध करने हेतु आदेश जारी करता है,, लेकिन यहां पर तो हनुमान एक दूत बन कर आए थे,, इसलिए रावण के अनुज (भाई ) विभीषण कहते हैं कि दूत का वध करना नीति के विरूद्ध है इस बात को रावण मानता है यह है हमारे भारत का प्राचीन इतिहास जहां कि राक्षस भी नीतियों को स्वीकार करते थे और अब,,,?


सुनि कपु वचन बहुत खिसियाना, बेगि न हरहु मूढ़ करि प्राना।

सुनत निसाचर मारन धाए, सचिवन सहित विभीषण आए।

नाइ सीस करि विनय बहूता, नीति विरोध न मारिय दूता।


 जीवन हम सबको प्रिय है और हम सब जीवन की पहेलियों को अनावृत्त करने के लिए उत्सुक हैं।    


      


     प्रकृति-सम्बन्धी विचार प्राचीन धर्मों में शायद ही सुपरिभाषित है। इसके अतिरिक्त इनकी प्रकृति आत्मनिष्ठ है, अतः ये आधुनिक युग की माँगों को पूरा नहीं कर सकते।



     हमारे सामने जो मार्ग है, उसका कितना ही भाग बीत चुका है, कुछ हमारे सामने है और अधिक आगे आने वाला है। बीते हुए से हम सहायता लेते हैं, आत्मविश्वास प्राप्त करते हैं, लेकिन बीते की ओर लौटना –यह प्रगति नहीं, प्रतिगति – पीछे लौटना – होगी।* हम लौट तो सकते नहीं, क्योंकि अतीत को वर्तमान बनाना प्रकृति ने हमारे हाथ में नहीं दे रखा है।


     फिर जो कुछ आज इस क्षण हमारे सामने कर्मपथ है, यदि केवल उस पर ही डटे रहना हम चाहते हैं तो यह प्रतिगति नहीं है, यह ठीक है, किन्तु यह प्रगति भी नहीं हो सकती यह होगी सहगति – लग्गू–भग्गू होकर चलना – जो कि जीवन का चिह्न नहीं है। लहरों के थपेड़ों के साथ बहने वाला सूखा काष्ठ जीवन वाला नहीं कहा जा सकता।


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