शिव के जलाभिषेक का कारण,,,

 



स संपादक शिवाकांत पाठक,,


तेज हवाएं उसकी जटाओं से बरबस

उलझ कर उन्हें बिखेर रही थी, 

बारिश अपने सबसे विकट स्वरूप 

में उसके कपाल को छू रही थी। 

तमाम देवतागण - असुर अचंभित 

से देखते हुए उसके इर्द-गिर्द हाथ 

जोड़े खड़े थे और वो उन सब के 

बीच में दोनों हथेली में नर-खोपड़ी 

में विष भरकर उसे अमृत की तरह 

गटक रहा था।


माथे पे भस्म, आंखों में गाँजे का रंग। 

गले में रुद्राक्ष, सीने पे जले हुए का 

एक गहरा काला घाव। कमर पे 

लिपटी बाघ छाल और पैरों के पास 

जमीन पे गड़ा त्रिशूल।


वो शिव थे जो विषपान कर रहे थे..

वो महादेव थे जो नीलकंठ बनने जा 

रहे थे।


"क्या उन्हें तनिक भी भान है कि ये 

विष उनके शरीर को किस हद तक 

हानि पहुंचा सकता है..."


शिव को एकटक घूरते हुए व्याकुल 

वीरभद्र ने समीप खड़े नंदी की ओर 

दृष्टि घुमाई,


नंदी के अवाक चेहरे से अंदाजा 

लगाना मुश्किल था कि वो क्या सोच 

रहा है जैसे उसके हृदय और मष्तिष्क 

का तारतम्य बिगड़ गया हो और 

लगभग यही हाल वहां उपस्थित हर 

जीव का था। 


समुंद्र मंथन के पहले चरण में ही 

निकले कालकूट विष को हाथ लगाने 

की हिम्मत भी किसी मे न हुई थी। 

असुर तो असुर देवताओं ने भी उसे 

अस्वीकार कर दिया था। लेकिन सृष्टि 

कल्याण के लिए विष को संचित 

करना जरूरी था और तब आगे आये 

थे शिव..


"तुम हमेशा विषमताओं को ही क्यों 

चुनते हो शिव..." 


व्याकुलता में वीरभद्र का लगातार 

बुदबुदाना जारी था।


शिव की आंखे अभी भी बंद थी, 

चेहरा कठोर लेकिन उस पर पीड़ा की 

रेखाएं उभर आईं थी। हालांकि विष 

अभी गले से नीचे नहीं उतरा था 

लेकिन गौर वर्ण शिव के शरीर पर 

नीली रेखाएं अभी से ही देखी जा 

सकती थीं। 


ये हलाहल था। शिव ने भले ही इसे 

स्वीकार किया था लेकिन ये सर्वसृष्टि 

को ज्ञात था कि अगर ये विष शरीर में 

फैल गया तो इसका परिणाम भयावह 

हो सकता है।


" हे माँ! रक्षा करो..."


वीरभद्र से अब अपनी व्याकुलता 

रोकना संभव नहीं था। दोनो घुटनों को 

जमीन पे टिका, आंखों को बंद कर के 

उसने प्रार्थना की मुद्रा में उसने अपने 

हाथ जोड़ लिए..


"हे शक्ति! शिव की रक्षा करो.."


वीरभद्र अपने चारों-तरफ़ बढ़ते 

फुसफुसाहट और कोलहाल से 

अभिनज्ञ था, उसका पूरा ध्यान 

अपने अंतर्मन की प्रार्थना के जवाब 

की प्रतीक्षा में लगा हुआ था..


" हे माँ..."


और तभी वीरभद्र को ऐसा 

अहसास हुआ जैसे उसके आस 

पास की हवा एक दम थम गयी है, जैसे 

उसके आस-पास के तमाम जीवों 

ने अपनी सांसों को थाम लिया है। 

उसका ध्यान  अब भंग हो गया, वो अब 

अपने समीप से आती आवाज़ों को ठीक से

सुन सकता था..


"वो आ गयी है, गौरिप्रिया आ गयी 

है..."


शरीर को यथावत और हाथों को 

प्रार्थना की मुद्रा में रखे हुए ही उसने 

अपनी आंखें खोली और उसके सामने 

का दृश्य सृष्टि के सर्वश्रेष्ठ दृश्यों में से 

एक था..


"शिव के समीप गौरिप्रिया खड़ी थी"


सौम्य चेहरा, माथे पे कुमकुम। 

आंखों में स्त्रीत्व का तेज, अधरों 

पे आत्मविश्वास का ठहराव। गले 

में गुड़हल के फूलों की माला, कलाई 

में रुद्राक्ष और शाखा पोला। सफेद 

धोती लपेटे, नंगे पांव वो शिव के 

समीप खड़ी ही नहीं थी वरन उन्होंने 

अपनी दोनों हथेलियों से शिव का गला थाम रखा था इतने दबाव के 

साथ ताकि विष उनके गले में ही स्थिर 

रह जाये।


"सृष्टि के लिए शिव आये थे और 

शिव के लिए गौरिप्रिया आयी थी.."


शिव की आंखे अभी भी बंद थी

और चेहरा उतना ही कठोर लेकिन 

अब अधरों पे पीड़ा की जगह एक 

सौम्य मुस्कान थी। शरीर की नीली 

रेखाएं अब विलुप्त हो रही थी और 

सारा विष उनके गले में संचित हो रहा 

था। 


"शिव के साथ अब शिवा थी, सम्पूर्ण 

सृष्टि 'नमः शिवाय' थी"


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पुनश्चः- 

ऐसी मान्यता है कि समुद्र मंथन 

श्रावण मास में हुआ था और महादेव 

के विष ग्रहण करने का प्रभाव उनपे 

कम हो इसलिए समस्त देवताओं ने 

उनपे जल अर्पित किया। इस घटना 

के बाद से ही हर वर्ष श्रावण मास में 

भगवान शिव को जल अर्पित करने या 

उनका जलाभिषेक करने की परंपरा 

बन गई।

 स संपादक शिवाकांत पाठक वी एस इंडिया न्यूज़ कीओर से


सावन की शुभकामनाओं के साथ


नमः शिवाय

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