वह सच जिसे सुन कर आप विश्वास नहीं करेंगे कि वतन पर मरने वालों का यही बाकी निंशा होगा,,,,। अवस्मरणीय सत्य।
स.संपादक शिवाकांत पाठक।
एक सच्चे देश भक्त का घर देखिए,,,
देश के लिए बलिदान देने वाले अमर शहीदों को सर्व प्रथम वी एस इंडिया न्यूज चैनल दैनिक विचार सूचक समाचार पत्र परिवार की ओर से शत शत नमन,,🙏🙏🙏🙏
बीमार मां को भी देखने नहीं गए आजाद,,
क्या आपने कभी सोचा है कि जिन लोगों ने आपको ब्रिटिश सरकार से आज़ाद कराया है उनके या उनके परिवार के पास इतना भी धन नहीं था कि वे दो वक्त की रोटी खा सकें,, आज के देश प्रेमी कुर्सी प्रेम का जो उदाहरण प्रस्तुत कर रहे यह पुरी दास्तान पढ़ने के बाद आप खुद अंदाजा लगा सकते हैं कि राष्ट्र प्रेम की परिभाषा क्या होती है,,
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशा होगा,, यहीं पर शहीद हुए थे आज़ाद,, जो जगह आज भी इसी तरह है,,,
आज वर्तमान में राजनीति और जंग में सब कुछ जायज है,, एक साइकिल से चलने वाला व्यक्ति चुनाव जीतने के बाद स्कार्पियो से चलते आपने देखा होगा लेकिन कुछ भी कह नहीं सकते आप,, जबकि उसे इस हालात तक आपने ही पहुचाया है,,,,
गौर से पढ़िए सच्चाई,,,👇🏽
चंद्रशेखर आजाद के शहीद होने के कई महीने बाद उनकी मां को पता चला था कि अब वो नहीं रहे। गांव के लोगों ने उनका बहिष्कार कर दिया था। उन्हें डकैत की तक मां कहकर बुलाया जाता था। अपना पेट पालने के लिए जंगल से लकड़ी काटकर लाती थी, तब कहीं जाकर दो वक्त की रोटी नसीब होती थी। उनकी ऐसी हालत देख सदाशिव राव उन्हें अपने साथ झांसी ले आए। जहां उन्होंने 1951 में अंतिम सांस ली। आजाद के करीबी थे सदाशिव...
चंद्रशेखर आजाद का जन्म 23 जुलाई, 1906 को एक आदिवासी गांव भाबरा में हुआ था।
इस मौके पर वी एस इंडिया न्यूज आपको उनकी मां से जुड़ी बातें बता रहा है। राइटर व हिस्टोरियन जानकी शरण वर्मा बताते हैं, चंद्रशेखर आजाद ने अपनी फरारी के करीब 5 साल बुंदेलखंड में गुजारे थे। इस दौरान वे ओरछा और झांसी में भी रहे। ओरछा में सातार नदी के किनारे गुफा के समीप कुटिया बना कर वे डेढ़ साल रहे फरारी के समय सदाशिव उन विश्वसनीय लोगों में से थे, जिन्हें आजाद अपने साथ मध्य प्रदेश के झाबुआ जिले के भाबरा गांव ले गए थे। यहां उन्होंने अपने पिता सीताराम तिवारी और मां जगरानी देवी से उनकी मुलाकात करवाई थी।
आजाद की मां ने जंगल से लकड़ियां काट पाला अपना पे सदाशिव, आजाद की मृत्यु के बाद भी ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ संघर्ष करते रहे। कई बार उन्हें जेल जाना पड़ा। आजादी के बाद जब वह स्वतंत्र हुए, तो वह आजाद के माता-पिता का हालचाल पूछने उनके गांव पहुंचे वहां उन्हें पता चला कि चंद्रशेखर आजाद की शहादत के कुछ साल बाद उनके पिता की भी मृत्यु हो गई थी। आजाद के भाई की मृत्यु भी उनसे पहले ही हो चुकी थी।
- पिता के निधन के बाद आजाद की मां बेहद गरीबी में जीवन जी रहीं थी। उन्होंने किसी के आगे हाथ फैलाने की जगह जंगल से लकड़ियां काटकर अपना पेट पालना शुरू कर दिया था वह कभी ज्वार, तो कभी बाजरा खरीद कर उसका घोल बनाकर पीती थीं। क्योंकि दाल, चावल, गेंहू और उसे पकाने के लिए ईंधन खरीदने लायक उनमें शारीरिक सामर्थ्य बचा नहीं था। सबसे शर्मनाक बात तो यह है कि उनकी यह स्थिति देश को आजादी मिलने के दो वर्ष बाद (1949) तक जारी रही। सदाशिव ने जब यह देखा, तो उनका मन काफी व्यथित हो गया आजाद की मां दो वक्त की रोटी के लिए तरस रही है, यह कारण जब उन्होंने गांव वालों से जानना चाहा तो पता चला कि उन्हें डकैत की मां कहकर बुलाया जाता है। साथ ही उनका सामाजिक बहिष्कार कर दिया गया था। आजाद की मां की ऐसी दुर्दशा सदाशिव से नहीं देखी गई। वह उन्हें अपने वचन का वास्ता देकर अपने साथ झांसी लेकर आ गए मार्च, 1951 में आजाद की मां का झांसी में निधन हो गया। सदाशिव ने उनका सम्मान अपनी मां की तरह करते हुए उनका अंतिम संस्कार खुद अपने हाथों से बड़ागांव गेट के पास के श्मशान में किय यहां आजाद की मां की स्मारक बनी है। लेकिन दुर्भाग्य से आजाद जैसे आजादी के मतवाले को जन्म देने वाली इस राष्ट्रमाता का स्मारक झांसी में आकार नहीं ले पाया है।
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