बड़ा सवाल,,,क्या विकास बनेगा विनाश का कारण..????
स.संपादक शिवाकांत पाठक।
हमारे स्वार्थ पूर्ण आचरण और पर्यावरण विरोधी आदतों के कारण आज मानव सभ्यता विनाश के कगार पर खड़ी है। हमारे स्वार्थ और आर्थिक लाभ की सोच के कारण प्रकृति हमारे लिए केवल अंतहीन लालच की पूर्ति हेतु संसाधन मात्र बनकर रह गई है। हमें नदी से पानी नहीं रेत चाहिए, पहाड़ से औषधि नहीं पत्थर चाहिए, पेड से छाया नहीं लकड़ी चाहिए और खेत से अन्न नहीं नगद फसल चाहिए। हमें ध्यान रखना होगा कि पृथ्वी हमारी धरोहर है तथा इसका संरक्षण हमारी जिम्मेदारी है। विकास करें लेकिन प्रकृति के विनाश और मनुष्य के अस्तित्व को खतरे में डालकर नहीं बल्कि प्रकृति के साथ चलते हुए। हमें प्राकृतिक संपदाओं का संरक्षण पूर्ण सदुपयोग करना होगा न कि दोहन।
पिछले कुछ समय की घटनाओं से हमारी संपूर्ण विकास संबंधी सोच में एक ठेस पहुंची है पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए बदलाव की जरूरत आपने महसूस की होगी। उत्तराखंड के जोशीमठ एवं आसपास के क्षेत्र में घरों में पड़ती दरारें और धंसती जमीन जोशीमठ के अस्तित्व को खतरे डालने वाली प्राकृतिक घटनाओं ने लोगों के दिलो को झझकोर दिया था। जोशीमठ पर मंडराते खतरे को लेकर पूरा देश चिंतित रहा वैज्ञानिक भी अपना ज्ञान दिखाते रहे लेकिन समस्या का समाधान केवल प्रकृति के पास था। केदार नाथ आपदा के दुखद क्षण अभी तक लोग नहीं भूल पाए,, पहाड़ों में सुरंग बनाना एक विकसित होने का प्रमाण है लेकिन वह मानव जाति के लिए खतरा साबित हुआ,,,इससे पहले भी उत्तर के पहाड़ी क्षेत्रों में प्राकृतिक आपदाओं ने मानव जीवन के लिए गंभीर संकट उत्पन्न किया था। विकास की योजना बनाते समय यह ध्यान नहीं रखा गया कि हिमालय एक ऐतिहासिक होने के बावजूद अपेक्षाकृत युवा पर्वत माला है । उसकी संरचना ऐसी नहीं है कि वहां हर मौसम में घूमा जाए, वहां पर जाकर सेल्फी ली जाए पिकनिक मनाई जाए होटल बुक किए जाएं,,,इसीलिए सदैव से तीर्थाटन भी मौसम और समय के अनुकूल ही किया जाता रहा है। हिमालय में पर्यटकों से धन लाभ हेतु बेतहाशा निर्माण के लिए पेड़ों को काटना, साथ ही बड़े बांधों का निर्माण, सड़कों का निर्माण, सुरंगों का खोदना आदि इस तरह की संपूर्ण विकास प्रक्रिया में पर्यावरण के प्रति चिंता का घोर अभाव इस क्षेत्र की संपूर्ण विकास गाथा पर एक बड़ा प्रश्न चिन्ह लगा रहा है साथ ही विकास की गाथा में शुरुआत से अंत तक हमारे जिम्मेदार लोग कमीशन के तौर पर अपना स्वार्थ निहित करते हैं उनके इस धन लाभ के स्वार्थ में प्रकृति का भय नहीं होता।.
हमारे स्वार्थ पूर्ण आचरण और पर्यावरण विरोधी आदतों के कारण आज मानव सभ्यता विनाश के कगार पर खड़ी है। और हम उसे विकास समझने की भूल कर रहे हैं,,हमारे स्वार्थ और आर्थिक लाभ की सोच के कारण प्रकृति हमारे लिए केवल अंतहीन दिवा स्वप्न की तरह लालच की पूर्ति हेतु संसाधन मात्र बनकर रह गई है। यह सच है कि प्रकृति की किसी भी चीज को हमने नहीं बनाया एफआईआर भी हमें नदी से पानी नहीं वल्कि रेत चाहिए, पहाड़ से औषधि नहीं पत्थर चाहिए, पेड से छाया नहीं लकड़ी चाहिए और खेत से अन्न नहीं नगद फसल चाहिए। हमें ध्यान रखना होगा कि पृथ्वी हमारी यानि कि मानव जीवन की आधार शिला है,,धरोहर है,, तथा इसका संरक्षण हमारी जिम्मेदारी है हमारा कर्तव्य है। विकास करें और विकास की आड़ में अपनी धन की आवश्यकताओं की भी पूर्ति करें लेकिन प्रकृति के विनाश और मनुष्य के अस्तित्व को खतरे में डालकर नहीं ,,,,बल्कि प्रकृति के साथ चलते हुए। हमें प्राकृतिक संपदाओं का संरक्षण करना होगा न कि दोहन।
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