सत्य की खोज के लिए स्वतंत्र होना जरूरी है

 


स .संपादक शिवाकांत पाठक !


धर्म या जाति के निर्माता हम खुद हैं जिनका एक सीमित दायरा होता है  हम उसमे कैद रहते हैं स्वतंत्र नहीं रहते पिंजरे में कैद पंछी की तरह फिर हम सत्य की खोज की चाह रखते हैं जब की सत्य का मार्ग असीमित है उसे किसी धर्म या जाति के आधार पर नहीं पाया जा सकता हम खुद ही  विचार कर देख सकते हैं कि धर्मो के अलग मत हैं  एक मत नहीं है जब कि सत्य तो एक ही है  ईश्वर एक ही है हम मतों व धर्मो के बंधन तोड़ कर जब स्वतंत्र होकर सत्य की ओर अग्रसर होते हैं तो हमको सत्य का दर्शन होता है !

वे अपने ही हाथों से बनाये गये कारागृह हैं। हम स्वयं उन्हें बनाते हैं और फिर उनमें बंद हो कर सत्य के मुक्त आकाश में उड़ने की सारी क्षमता खो देते हैं। और, अभी मैं देख रहा हूं आकाश में उड़ती एक चील को। उसकी उड़ान में कितनी स्वतंत्रता है, कितनी मुक्ति है! एक पिंजड़े में बंद पक्षी है ओर एक मुक्त आकाश में उड़ान लेता! और दोनों क्या हमारे चित्त की दो स्थितियों के प्रतीक नहीं हैं?


आकाश में उड़ता हुआ पक्षी न कोई पदचिह्न छोड़ता है और न उड़ान का कोई मार्ग ही उसके पीछे बनता है। सत्य का भी ऐसा ही एक आकाश है। जो मुक्त होते हैं, वे उसमें उड़ान लेते हैं, पर उनके पीछे पदचिह्न नहीं बनते हैं और न कोई मार्ग ही निर्मित होते हैं। इसलिए स्मरण रहे कि सत्य के लिए बंधे-बंधाये मार्ग की तलाश व्यर्थ है।


ऐसा कोई मार्ग नहीं है और यह शुभ ही है, क्योंकि बंधे मार्ग किसी बंधन तक ही पहुंचा सकते थे, वे मुक्त कैसे करा सकते हैं! सत्य के लिए प्रत्येक को अपना मार्ग स्वयं ही बनाना होता है और कितना सुंदर है। जीवन पटरियों पर चलती हुई गाड़ियों की तरह नहीं है, सुंदर पर्वतों से सागर की ओर दौड़ती हुई सरिताओं की भांति है।


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