विरोध या असहमति ही सत्य को जन्म देने में सक्षम हैं! स.संपादक शिवाकांत पाठक !
साहित्यकार की श्रेष्ठता इसमें है कि वह पढ़ने के बाद हजम न किया जा सके वही असली साहित्य है
असहमतियां मनुष्य की स्मृतियों, आशाओं और कल्पनाओं में हमेशा मौजूद रही हैं इस बात का प्रमाण हमारे धार्मिक ग्रंथों में वर्णित है,,असहमतियां या विरोध हैं तो सत्ता-व्यवस्था से सच के लिए टकराव है।असहमतियां या विरोध हैं तो हमारे पास ऊंचे आदर्शों को रूपायित करने की आकांक्षा है।असहमतियां या विरोध हैं तो विविधता की ताकत है।असहमतियां या विरोध हैं तो स्वतंत्रता का अहसास है क्यों कि जब तक हमको सच और सही बोलने का अधिकार है ,तब तक हम खुद को स्वतंत्र महसूस करते हैं।असहमतियां हैं तो हमारे मनुष्य होने का एक अर्थ है वरना जानवर और इंसान में अंतर क्या है,।
प्राचीन कहावत है, ‘वादे वादे जायते तत्त्वबोधः’, अर्थात विचारों की टकराहट से ही सत्य का बोध होता है जब तक हमारे द्वारा किए जा रहे प्रत्येक कार्य का विरोध नहीं होगा तब तक हमने कार्य सही किया या गलत इस बात का निर्णय नहीं हो सकता,,,एक समय ग्रीक दार्शनिक सुकरात ने स्वीकृत धारणाओं का विरोध किया था और उन्हें सत्य कहने के कारण जहर पीना पड़ा था शायद आप को पता हो।उनका समस्त चिंतन संवाद में निहित है।ग्रीक साहित्य की तरह वैदिक साहित्य में भी संवाद का महत्व है।इसमें ईश्वरवादी दर्शनों के समानांतर अनीश्वरवादी दर्शन हैं आस्तिक और नास्तिक दोनो हैं।बुद्ध अपना उपदेश देने से पहले कई दार्शनिकों से संवाद कर चुके थे और उनसे असहमत थे लेकिन शांत रहे ।गांधी असहमतियों को सुलझाने के लिए रामास्वामी नायकर सहित कई विरोधी मत वालों से जा-जाकर मिले।वे भारत को जोड़ने का काम कर रहे थे।प्रगतिशील आंदोलन और आपातकाल के दौर में संवाद से ही नए पुल बने थे।
2001 के वर्ष को संयुक्त राष्ट्र ने खतरे भांपकर ‘सभ्यताओं के संवाद’ यानी के ( सभी के विचारों को सुनने समझने)का वर्ष घोषित किया था। असहमति या विरोध पर संवाद या वार्तालाप सभ्यता का प्रतीक या चिह्न है, लेकिन संवाद तभी संभव है जब बोलने वालों के पास सुनने की क्षमता हो सच तो यही है। बाकी कहना न होगा कि संवाद ही किसी समाज को जीवंत और गतिशील बनाकर रखते हैं।
इधर गैर-जरूरी आरोप-प्रत्यारोप के बीच न सिर्फ संवाद या वार्तालाप की जगह सिकुड़ गई है, बल्कि असहमत या विरोधी व्यक्ति को शत्रु के रूप में देखा जाता है क्यों! आइए इतिहास या धार्मिक ग्रंथों से सीखते हैं,,विभीषण राम का भक्त था और रावण से असहमत था, लेकिन रावण की लंका में एलानिया रहता था।विदुर कौरवों के साथ रहते हुए भी उनके गलत विचारों से खुलकर असहमत होते थे यानी कि विरोधी थे,,फिर भी उनका आदर था।धृतराष्ट्र का एक बेटा युयुत्सु अपने भाइयों से अलग मत रखते हुए पांडव पक्ष से लड़ा।यह प्राचीन महाकाव्यों की बात हुई। प्रतियोत्तर में असहमति या विरोध जताने वालो के साथ कोई भी बटबर्ता नहीं देखी गई ,,
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