सनातन संस्कृति की धरोहर थे मर्यादा पुरुषोत्तम राम,,!
संपादक शिवाकांत पाठक!
राजा दशरथ जी के मन में दर्पण देखने के उपरांत विचार आता है कि अब मुझे रज पाठ अपने पुत्र को सौंप कर वान्य प्रस्थ हो जाना चाहिए,,
श्रवन समीप भए सित केसा। मनहुँ जरठपनु अस उपदेसा॥
नृप जुबराजु राम कहुँ देहू। जीवन जनम लाहु किन लेहू॥4॥
(देखा कि) कानों के पास बाल सफेद हो गए हैं, मानो बुढ़ापा ऐसा उपदेश कर रहा है कि हे राजन्! श्री रामचन्द्रजी को युवराज पद देकर अपने जीवन और जन्म का लाभ क्यों नहीं लेते॥4॥
प्रभु राम के राज्याभिषेक की तैयारियां जोरों से होने लगीं,, पुरी अयोध्या में खुशी की लहर दौड़ गई,, पंरतु राम के ह्रदय में कोई भी प्रसन्नता नहीं थी,, क्यो कि उन्हें सब कुछ ज्ञात था,, लेकिन यहां स्पष्ट रूप से बता दें कि प्रभु राम और देवताओं में क्या अंतर है,, सभी देवता माता सरस्वती के पास पहुंच कर उनसे याचना करते हैं मां राम का राज्याभिषेक नहीं होना चाहिए,, यदि ऐसा हुआ तो रावण का वध इस ब्रम्हांड में कोई भी नहीं कर सकता,, देवताओं की करुण पुकार सुनकर सरस्वती मां द्रवित हो उठीं और उन्होने मंद बुद्धि मंथरा व कैकई के मन मस्तिष्क पर अपना आधिपत्य स्थापित किया ,, अब आप कहेंगे कि हुआ वही जो देवता चाहते थे,,लेकिन नहीं , यह स्वयं प्रभु राम की इक्षा थी उनका अवतार ही रावण के विनाश के लिए हुआ था,, और यही सत्य है कि जस क्षण रघुपति जस करें, ताश तस क्षण तस मति होय,,,,
जब प्रभु राम जैसा चाहते हैं उसी क्षण वैसी ही मति, या विचार आने लगते हैं,,
आगे का लेख कल शनिवार रात्रि 9 बजे अवश्य पढ़ें
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