रघुनंदन फिर से आ जाओ,,,।
बढ़ रहा पाप इस प्रथ्वी पर कुछ चमत्कार दिखला जाओ।
रघुनंदन फिर से आ जाओ,,
रघुनंदन फिर से आ जाओ,,,,
मानवता रोती फफक फफक कर, धन के सभी पुजारी हैं।
जो करते बातें सदा ज्ञान की वे ख़ुद ही व्यभिचारी हैं।।
तुमने त्यागा था राजमहल अपना कर्तव्य निभाने को।
कुल की मर्यादा बनी रहे,, तैयार हुए वन जानें को ।।
जो पतित हो रहे कर्मो से उनको कुछ सबक सिखा जाओ,,,,
रघुनंदन फिर से आ जाओ,,
रघुनंदन फिर से आ जाओ,,,,
थीं निष्कलंक माता सीता उनको भी तुमने त्यागा है।
थे कितने दुख झेले तुमने, लेकिन समाज कब जागा है,,?
अब औरत, दौलत की खातिर होते हैं अत्याचार यहां।
थोड़े से लालच के खातिर दोषी खुद जिम्मेदार यहां।।
जो भूल चुके हैं सत्य मार्ग, आदर्श मार्ग सिखला जाओ,,,
रघुनंदन फिर से आ जाओ,,
रघुनंदन फिर से आ जाओ,,,,
स्वरचित मौलिक रचना
स.संपादक शिवाकांत पाठक
दैनिक विचार सूचक समाचार पत्र सूचना एवम प्रसारण मंत्रालय भारत सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त,, लखनऊ, उन्नाव,देहरादून से प्रकाशित,,उत्तराखंड सरकार द्वारा विज्ञापन हेतु अधिकृत,,हरिद्वार उत्तराखंड
संपर्क सूत्र 📲 9897145867
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