त्याग तपस्या और सफ़लता
मनोज श्रीवास्तव कुंभ नोडल अधिकारी! हरिद्वार!
स्वीकार करने का संकल्प पैदा होने का अर्थ है तपस्या का समाप्त हो जाना। यदि तपस्या खत्म तब सेवा भी ख़त्म। जहाँ त्याग और तपस्या नही वहाँ सेवा की सफलता भी नही है। सिद्धि स्वीकार कर लेने का अर्थ है,प्रारब्ध को यही पर समाप्त होता है और भविष्य में कुछ नही प्राप्त होता है। अल्पकाल के प्राप्त हुए भाग्य में यदि बुद्धि का झुकाव है तब वह सेवा सफलता स्वरूप नही होगी।
महिमा का त्याग,मान का त्याग और प्रकृति के दासी बनने का त्याग करना ही वास्तविक त्याग है। ऐसे त्याग के बाद मेहनत कम सफलता अधिक है।
यदि टीचर कमजोर है तब जिनके लिये निमित्त बने है वह भी कमजोर होंगे।
टीचर का कार्य यह बोलना नही है कि क्या करूँ,कैसे करूँ या यह कहना कि यह तो मुझे आता नही है। यदि टीचर के बोल न होकर कमजोर स्टूडेंट्स के बोल है।
जहाँ त्याग तपस्या में आकर्षण होगी,वहाँ सेवा स्वतः आकर्षित होकर पीछे पीछे आएगी। जहाँ त्याग तपस्या में आकर्षण होगी,वहाँ सेवा स्वतः आकर्षित होकर पीछे पीछे आएगी। उसके बाद यह कहावत सिद्ध होगी कि धूल से भी सोना हो जाता है।
त्याग और तपस्या का प्रीत से निभाना है। साथी के साथ सदैव चलना ही निभाना है।साथ निभाना अर्थात हर कदम उसकी मत पर चलना। जो प्रीत निभाने वाले होते है वे प्रीत में खोए होते है।शक्तिपन की निशानी है कही भी किसी मे आसक्ति न हो। आसक्ति न् होंना अर्थात बॉडी कॉन्सेस नही होने पर शक्तियों के आधार बन जाते है।
सर्विस में वृद्धि न होना वह तो और बात है, परन्तु विधि-पूर्वक चलना यह है सर्विस की सफ़लता। लेकिन यह तभी होगी जब त्याग और तपस्या होगी ।
मैं टीचर हूँ, मैं इन्वार्ज हूँ, मैं ज्ञानी हूँ या योगी हूँ यह स्वीकार करना, इसको भी त्याग नहीं कहेगे। दूसरा भले ही कहे, परन्तु स्वयं को स्वयं न कहे। अगर स्वयं को स्वयं कहते हैं तो इसको भी स्व-अभिमान ही कहेगे। तो त्याग की परिभाषा साधारण नहीं। यह मोटे रूप का त्याग तो प्रजा बनने वाली आत्मायें भी करती हैं, परन्तु जो निमित्त बनते है उनका त्याग महीन रूप में है। कोई भी पोज़ीशन को या कोई भी वस्तु को किसी व्यक्ति द्वारा भी स्वीकार न करना यह है त्याग। नहीं तो यह कहावत है कि जो सिद्धि को स्वीकार करते तो 'वह करामत खैर खुदाई। तो यहाँ भी कोई सिद्धि को स्वीकार किया जो ज्ञानयोग से प्राप्त हुआ मान व शान तो यह भी विधि का सिद्धि-स्वरूप प्रालब्ध ही है।
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