क्या मुझे पहचान लोगी?
मिल गये उस जन्म में संयोगवश यदि,
क्या मुझे पहचान लोगी?
चौंककर चंचल मृगी सी धर तुरत दो चार पल पग,
कहो प्रिय, क्या देखते ही खोल गृह-पट आ मिलोगी?
खुली लट होगी तुम्हारी झूमती मुख चूमती सी,
कहो प्रिय, क्या आ ललककर पुलक आलिंगन भरोगी?
कहो, क्या इस जन्म की सब लोक-लज्जा,
प्राण, मेरे हित वहाँ तुम त्याग दोगी?
जब विरह के युग बिता, युग-प्रेमियों के उर मिलेंगे।
कौन जाने कल्प कितने बाहु-बन्धन में बंधेंगे?
कहेंगे दृग-अधर हँस-मिल अश्रुमय अपनी कहानी,
एक हो शम कम्प उर के मौन हो-होकर सुनेंगे?
प्रलय होगी, सिन्धु उमड़ेंगे हृदय में,
चेत होगा, फिर नयी जब सृष्टि होगी!
रचना=स. संपादक शिवाकांत पाठक हरिद्वार उत्तराखंड📞 mob 9897145867
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