(समस्त नारियों को समर्पित रचना)





उंगली पकड़ कर जो हमें चलना सिखलाती है!


बचा खुचा खा कर के भूखी सो जाती है! 


बिना किसी लालच के ममता लुटाती है!



केवल दो शब्दो में नारी कहलाती है !


बच्चो को जो कष्ट में कभी देख नहीं पाती है!


ऑटो, रिक्शा, ट्रेन एरोप्लेन भी चलाती है!!


पति को यमराज तक से वापस ले आती है!




केवल दो शब्दो में नारी कहलाती है!



घुट घुट कर रोती है पर हंसना सिखाती है !



 जुल्मों को  सहकर भी चुप रह जाती है!


अंत में वो मां ब्रद्घा आश्रम को जाती है!


केवल दो शब्दों में नारी कहलाती है! 


 पुरुषों के सम्मान के लिए खुद मिट जाती है!


राम के लिए सीता आग में कूंद जाती है!



नोचते है भेड़िए तब दानवता भी शर्माती है!

 


केवल दो शब्दो में नारी कहलाती है ! 



अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर दुनियां की माताओं बहनों को समर्पित स्वरचित रचना = स. संपादक शिवाकांत पाठक उत्तराखंड संपर्क सूत्र=9897145867

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