धन, पद, व प्रतिष्ठा का अभिमान त्याग दें वरना ??
स. संपादक
शिवाकांत पाठक! हरिद्वार!
सुनहु राम कर सहज सुभाऊ । जन अभिमान न राखहिं काऊ ॥
संसृत मूल सूलप्रद नाना । सकल सोक दायक अभिमाना ॥
ताते करहिं कृपानिधि दूरी । सेवक पर ममता अति भूरी ॥
भगवान् अभिमानको दूर करते हैं, पर मनुष्य फिर अभिमान कर लेता है ! अभिमान करते-करते उम्र बीत जाती है ! पर वह अभिमान को नहीं त्यागना चाहता , मैं पन को नहीं छोड़ता संसार की रचना करने वाले ने किसी भी वस्तु में अपना नाम नहीं लिखा कि मेड इन ईश्वर तो तुम किस बात का अभिमान करते हो तुम्हे तो गिन कर सांसे मिली है धीमे धीमे वे कम हो रहीं हैं बिना उस की मर्जी के तुम कुछ भी करने में समर्थ नहीं हो यह एक दम सच है फिर भी तुम अभिमान करते हो यह भूल है तुमको जो भी दिया वह उसी ईश्वर ने दिया है या तुम जब पैदा हुए तब तुम अपार धन,दौलत , पद, लेकर पैदा हुए थे ? सच में सोचो एक पल में लोग सत्ता से बेदखल हो जाते हैं एक पल में एक्सिडेंट हो जाता है क्यों ? सब कुछ ईश्वर कर रहा है तुम निमित्त मात्र हो अभिमान करोगे तो कंस, व लंकापति रावण को क्या हाल हुआ ? जानते होंगे आप तो ध्यान करो उस परमात्मा का प्रभु राम का जिससे आप का कल्याण होगा!
यह मानवजन्म भगवान्का ही दिया हुआ है । भगवान्ने मनुष्यको तीन शक्तियाँ दी हैं‒करनेकी शक्ति, जाननेकी शक्ति और माननेकी शक्ति । करनेकी शक्ति दूसरोंका हित करनेके लिये दी है, जाननेकी शक्ति अपने-आपको जाननेके लिये दी है और माननेकी शक्ति भगवान्को माननेके लिये दी है । परन्तु गलती तब होती है, जब मनुष्य इन तीनों शक्तियोंको अपने लिये लगा देता है । इसलिये वह दुःख पा रहा है । बल, बुद्धि, योग्यता आदि अपने दीखते ही अभिमान आता है । मैं ब्राह्मण हूँ‒ऐसा माननेपर ब्राह्मणपनेका अभिमान आ जाता है । मैं धनवान् हूँ‒ऐसा माननेपर धनका अभिमान आ जाता है । मैं विद्वान् हूँ‒ऐसा माननेपर विद्याका अभिमान आ जाता है ।
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