जब भी मैं देखता हूं
मटती-पिटती कलियों को,
धुंए से भरी गलियों को,
नक्सलवादी नारों को, खुले फिरते हत्यारों को।
पतझड़ सी बहारों को,
जब भी देखता हूं,
सिसकते हुए बचपन को, बिकते हुए यौवन को,
धक्के खाते बुढ़ापे को, भारत में फैले हुए स्यापे को।
देखता हू्ं जब भी,
फांसी लटकते हुए किसान को, समय से पहले बुढ़ाते जवान को,
धक्के खाते बेरोजगार को,घोटालों के अंबार को।
मैं लिख नहीं पाता हूं,
कामिनी के केशों पर, दामिनी के भेषों पर,
बल खाती चोटी पर।
नहीं लिख पाता मैं,
कुर्ती और कमीज पर, सावन वाली तीज पर,
आंखों वाले काजल पर, पांवों की खनकती पायल पर।
मुझे दिखती है ,
सिर्फ सिसकती मां भारती, जो हरदम मुझे पुकारती ।
इसलिए, मैं लिखता हूं केवल,
सैनिक की सांसों को,
मां के उर में चुभती फांसों को,
बच्चों के बचपन को,
बूढ़ों की उम्र पचपन को,
युग-धर्म पर लिखना मेरा काम है,
तुम्हें मुबारक हो श्रंगार,
देश-धर्म पर लिखना ही,
मेरी शान है। रचना= स्वतंत्र पाठक हरिद्वार उत्तराखंड
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