सत्य में अवस्थिति के तीन सूत्र: एकांत, मौन, ध्यान!!
स. संपादक शिवाकांत पाठक!
_ऐसे रहो, जैसे अकेले हो। कहीं भी रहो -- ऐसे रहो, जैसे अकेले हो। न कोई संगी है, न कोई साथी। भीड़ में भी रहो तो अकेले रहो। परिवार में भी रहो तो अकेले रहो।_
इस बात को जानते ही रहो। भीतर एक क्षण को यह सूत्र हाथ से मत जाने देना। एक क्षण को भी यह भ्रांति पैदा मत होने देना कि अकेले नहीं हो, कि कोई साथ है।
_यहां न कोई साथ है ; न कोई साथ हो सकता है। यहां सब अकेले हैं। अकेलापन आत्यंतिक है। इसे बदला नहीं जा सकता। थोडी़ - बहुत देर को भुलाया जा सकता है ; बदला नहीं जा सकता और सब भुलावे एक तरह के मादक द्रव्य हैं। एक प्रकार के नशे हैं। कैसे भुलाते हो, इससे फर्क नहीं पड़ता ,कोई शराब पीकर भुलाता है। कोई धन की दौड़ में पड़कर भुलाता है। कोई पद के लिए दीवाना होकर भुलाता है। कैसे सत्य को भुलाते हो, इससे फर्क नहीं पड़ता।_
लेकिन थोडी़ देर को भुला सकते हो। बस। जब भी नशा उतरेगा , अचानक पाओगे : अकेले हो।_
सत्यशील वही है जो जानता है कि मैं अकेला हूं और भुलाता नहीं अपने अकेलेपन को। भुलाना तो दूर अपने अकेलेपन में रस लेता है। प्रतीक्षा करता है कि कब मौका मिल जाए कि थोडी़ देर अपने अकेलेपन का स्वाद लूं। थोडी़ देर आंख बंद करके अपने में डूब जाऊं ; अकेला रह जाऊं। वही मेरी नियति है।वही मेरा स्वभाव है। उसी स्वभाव से मुझे पहचान बनानी है।
_दूसरों से पहचान बनाने से कुछ भी न होगा ;अपने से पहचान बनानी है। दूसरों को जानने से क्या होगा? अपने को ही न जाना और सबको जान लिया तो इस जानने का कोई मूल्य नहीं है। मूल में तो अज्ञान रह गया।_
रोज-रोज नया कुछ होता रहे , तो विचार में धारा बहती रहती है ; प्राण पड़ते रहते हैं।
_अब अकेले में बैठ गए , न बोलना है , न चालना है। कब तक सिर में वही विचार घूमते रहेंगे ?धीरे-धीरे मुर्दा हो जाएंगे। गिर जाएंगे। सूखे पत्तों की तरह झड़ जाएंगे। नए पत्ते तो अब आते नहीं। पुराने पत्ते एक बार झड़ गए ,तो मन निर्विचार हो जाएगा ।उस दशा का नाम ही ध्यान है।_
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