पत्रकारिता का बदलता स्वरूप बेहद चिंताजनक स्थिति !

 





स. संपादक शिवाकांत पाठक !



मुकेश राणा उत्तराखंड की रिपर्टिंग, पत्रकारिता की शुरुआत शायद आप न जानते हों लेकिन पत्रकारिता का अंत आप देख ही रहे होंगे क्यों कि विभिन्न तरह के चेहरे जिनका पत्रकारिता से दूर दूर तक कोई वास्ता या सरोकार नहीं है वे भी खुद को पत्रकार कहने में कोई भी शर्म महसूस नहीं करते, जबकि वास्तव में पत्रकारिता की शुरुआत ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ थी हिंदुस्तान को आजाद कराने के मकसद से पत्रकारिता को कुछ राष्ट्र भक्तों ने जन्म दिया उन्ही में से एक थे गणेश शंकर विद्यार्थी जिन्होंने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ ही नहीं बल्कि भारतीय पूंजी पतियों के खिलाफ भी मोर्चा खोला था , और आज वर्तमान में आप देख ही रहे हैं सब कुछ ,,


आज हर अवैध कार्य करने वालों को पत्रकारिता की कीमत का अंदाजा हो चुका है बाजार में बिकने वाली वस्तुओं की तरह कलम का भी मूल्य तय हो चुका है तो फिर भ्रष्टाचार समाप्त होने की संभावना पूरी तरह से अस्तित्वहीन दिख रही है ,, और तो और अब सरकारें, व सुप्रीम कोर्ट भी कह रहा है कि भ्रटाचार देश की रगों में व्याप्त हो चुका है , अपने सुना होगा कि किसी रचनाकार ने लिखा था कि,, कलम के पुजारी अगर बिक गए तो, वतन के लुटेरे वतन बेंच लेंगे ,,, 


और देख भी रहे हैं आप !



उत्तर प्रदेश के कानपुर शहर में 9 नवंबर 1913 को ‘प्रताप’ की नींव पड़ी. यह काम शिव नारायण मिश्र, गणेश शंकर विद्यार्थी, नारायण प्रसाद अरोड़ा और कोरोनेशन प्रेस के मालिक यशोदा नंदन ने मिलकर किया था.


चारों ने 100-100 रुपये की पूंजी का योगदान दिया था. 400 रुपये की रकम से चार रुपये महीने किराये के मकान से 16 पृष्ठ का ‘प्रताप’ शुरू हुआ था. पहले साल से पृष्ठों की वृद्धि का सिलसिला बढ़ा तो फिर बढ़ता ही रहा.


20 से 24 फिर 28, 32, 36 पृष्ठों का सफ़र तय करते हुए ‘प्रताप’ 40 पृष्ठ तक पहुंच गया. 1930 में 40 पृष्ठ के ‘प्रताप’ का सालाना मूल्य साढ़े तीन रुपये था.


कुछ ही दिन बाद यशोदा नंदन और नारायण प्रसाद अरोड़ा अलग हो गए. शेष शिव नारायण मिश्र और गणेश शंकर विद्यार्थी ने ‘प्रताप’ को अपनी कर्मभूमि बना लिया.


‘प्रताप’ के जन्म लेने पर महावीर प्रसाद द्विवेदी ने आशीर्वाद स्वरूप दो पंक्तियां विद्यार्थी जी को भेजी थीं. आगे चलकर वही पंक्तियां ‘प्रताप’ की मुख वाणी बनीं:


‘जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है


वह नर नहीं, नर पशु निरा है, और मृतक समान है’

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